दक्षिणामूर्ति शिव
दक्षिणामूर्ति शिव भगवान शिव का सबसे तेजस्वी स्वरूप है । यह उनका आदि गुरु स्वरूप है । इस रूप की साधना सात्विक भाव वाले सात्विक मनोकामना वाले तथा ज्ञानाकांक्षी साधकों को करनी चाहिये ।
एक प्रयास सनातन धर्म[Sanatan Dharma] के महासमुद्र मे गोता लगाने का.....कुछ रहस्यमयी शक्तियों [shakti] से साक्षात्कार करने का.....गुरुदेव Dr. Narayan Dutt Shrimali Ji [ Nikhileswaranand Ji] की कृपा से प्राप्त Mantra Tantra Yantra विद्याओं को समझने का...... Kali, Sri Yantra, Laxmi,Shiv,Kundalini, Kamkala Kali, Tripur Sundari, Maha Tara ,Tantra Sar Samuchhay , Mantra Maharnav, Mahakal Samhita, Devi,Devata,Yakshini,Apsara,Tantra, Shabar Mantra, जैसी गूढ़ विद्याओ को सीखने का....
दक्षिणामूर्ति शिव
दक्षिणामूर्ति शिव भगवान शिव का सबसे तेजस्वी स्वरूप है । यह उनका आदि गुरु स्वरूप है । इस रूप की साधना सात्विक भाव वाले सात्विक मनोकामना वाले तथा ज्ञानाकांक्षी साधकों को करनी चाहिये ।
दक्षिणामूर्ति शिव
दक्षिणामूर्ति शिव भगवान शिव का सबसे तेजस्वी स्वरूप है । यह उनका आदि गुरु स्वरूप है । इस रूप की साधना सात्विक भाव वाले सात्विक मनोकामना वाले तथा ज्ञानाकांक्षी साधकों को करनी चाहिये ।
आदि गुरु भगवान शिव की साधना
दक्षिणामूर्ति शिव भगवान शिव का सबसे तेजस्वी स्वरूप है ।
यह उनका आदि गुरु स्वरूप है । इसमे वे गुरु स्वरूप मे ऋषियों को ज्ञानामृत बांटते हुए परिलक्षित हो रहे हैं ।.
इस रूप की साधना सात्विक भाव वाले सात्विक मनोकामना वाले तथा ज्ञानाकांक्षी साधकों को करनी चाहिये ।
॥ऊं ह्रीं दक्षिणामूर्तये नमः ॥
ब्रह्मचर्य का पालन करें.
ब्रह्ममुहूर्त यानि सुबह ४ से ६ के बीच जाप करें.
सफेद वस्त्र , आसन , होगा.
दिशा इशान( उत्तर और पूर्व के बीच ) की तरफ देखकर करें.
भस्म से त्रिपुंड लगाए .
रुद्राक्ष की माला पहने .
रुद्राक्ष की माला से जाप करें.
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महामृत्युंजय स्तोत्र
मार्कण्डेय मुनि द्वारा वर्णित “महामृत्युंजय स्तोत्र” मृत्यु के भय को मिटाने वाला स्तोत्र है ।
इसका आप नित्य पाठ कर सकते हैं ।
ॐ रुद्रं पशुपतिं स्थाणुं नीलकंठमुमापतिम् ।
नमामि शिरसा दॆवं किं नॊ मृत्यु: करिष्यति ॥ १ ॥
नीलकंठं कालमूर्तिं कालज्ञं कालनाशनम् ।
नमामि शिरसा दॆवं किं नॊ मृत्यु: करिष्यति ॥ २ ॥
नीलकंठं विरूपाक्षं निर्मलं निलयप्रदम् ।
नमामि शिरसा दॆवं किं नॊ मृत्यु: करिष्यति ॥ ३ ॥
वामदॆवं महादॆवं लॊकनाथं जगद्गुरुम् ।
नमामि शिरसा दॆवं किं नॊ मृत्यु: करिष्यति ॥ ४ ॥
दॆवदॆवं जगन्नाथं दॆवॆशं वृषभध्वजम् ।
नमामि शिरसा दॆवं किं नॊ मृत्यु: करिष्यति ॥ ५ ॥
गंगाधरं महादॆवं सर्पाभरणभूषितम् ।
नमामि शिरसा दॆवं किं नॊ मृत्यु: करिष्यति ॥ ६ ॥
त्र्यक्षं चतुर्भुजं शांतं जटामुकुटधारणम् ।
नमामि शिरसा दॆवं किं नॊ मृत्यु: करिष्यति ॥ ७ ॥
भस्मॊद्धूलितसर्वांगं नागाभरणभूषितम् ।
नमामि शिरसा दॆवं किं नॊ मृत्यु: करिष्यति ॥ ८ ॥
अनंतमव्ययं शांतं अक्षमालाधरं हरम् ।
नमामि शिरसा दॆवं किं नॊ मृत्यु: करिष्यति ॥ ९ ॥
आनंदं परमं नित्यं कैवल्यपददायिनम् ।
नमामि शिरसा दॆवं किं नॊ मृत्यु: करिष्यति ॥ १० ॥
अर्धनारीश्वरं दॆवं पार्वतीप्राणनायकम् ।
नमामि शिरसा दॆवं किं नॊ मृत्यु: करिष्यति ॥ ११ ॥
प्रलयस्थितिकर्तारं आदिकर्तारमीश्वरम् ।
नमामि शिरसा दॆवं किं नॊ मृत्यु: करिष्यति ॥ १२ ॥
व्यॊमकॆशं विरूपाक्षं चंद्रार्द्ध कृतशॆखरम् ।
नमामि शिरसा दॆवं किं नॊ मृत्यु: करिष्यति ॥ १३ ॥
गंगाधरं शशिधरं शंकरं शूलपाणिनम् ।
नमामि शिरसा दॆवं किं नॊ मृत्यु: करिष्यति ॥ १४ ॥
अनाथं परमानंदं कैवल्यपददायिनम् ।
नमामि शिरसा दॆवं किं नॊ मृत्यु: करिष्यति ॥ १५ ॥
स्वर्गापवर्ग दातारं सृष्टिस्थित्यांतकारिणम् ।
नमामि शिरसा दॆवं किं नॊ मृत्यु: करिष्यति ॥ १६ ॥
कल्पायुर्द्दॆहि मॆ पुण्यं यावदायुररॊगताम् ।
नमामि शिरसा दॆवं किं नॊ मृत्यु: करिष्यति ॥ १७ ॥
शिवॆशानां महादॆवं वामदॆवं सदाशिवम् ।
नमामि शिरसा दॆवं किं नॊ मृत्यु: करिष्यति ॥ १८ ॥
उत्पत्ति स्थितिसंहार कर्तारमीश्वरं गुरुम् ।
नमामि शिरसा दॆवं किं नॊ मृत्यु: करिष्यति ॥ १९ ॥
फलश्रुति
मार्कंडॆय कृतं स्तॊत्रं य: पठॆत् शिवसन्निधौ ।
तस्य मृत्युभयं नास्ति न अग्निचॊरभयं क्वचित् ॥ २० ॥
शतावृतं प्रकर्तव्यं संकटॆ कष्टनाशनम् ।
शुचिर्भूत्वा पठॆत् स्तॊत्रं सर्वसिद्धिप्रदायकम् ॥ २१ ॥
मृत्युंजय महादॆव त्राहि मां शरणागतम् ।
जन्ममृत्यु जरारॊगै: पीडितं कर्मबंधनै: ॥ २२ ॥
तावकस्त्वद्गतप्राणस्त्व च्चित्तॊऽहं सदा मृड ।
इति विज्ञाप्य दॆवॆशं त्र्यंबकाख्यममं जपॆत् ॥ २३ ॥
नम: शिवाय सांबाय हरयॆ परमात्मनॆ ।
प्रणतक्लॆशनाशाय यॊगिनां पतयॆ नम: ॥ २४ ॥
॥ इति श्री मार्कंडॆयपुराणॆ महा मृत्युंजय स्तॊत्रं संपूर्णम् ॥
पाशुपतास्त्र स्तोत्र
श्रावण मास मे इस स्तोत्र का नियमित पाठ कर सकते है ..
इसका पाठ एक बार से ज्यादा न करें क्योंकि यह अत्यंत शक्तिशाली और ऊर्जा उत्पन्न करने वाला स्तोत्र है ।
विनियोग :-
हाथ मे पानी लेकर विनियोग पढे और जल जमीन पर छोड़ें ....
ॐ अस्य श्री पाशुपतास्त्र मंत्रस्य ब्रह्मा ऋषि: गायत्री छन्द: श्रीं बीजं हुं शक्ति: श्री पशुपतीनाथ देवता मम सकुटुंबस्य सपरिवारस्य सर्वग्रह बाधा शत्रू बाधा रोग बाधा अनिष्ट बाधा निवारणार्थं मम सर्व कार्य सिद्धर्थे [यहाँ अपनी इच्छा बोलें ] जपे विनियोग: ॥
कर न्यास :-
ॐ अंगुष्ठाभ्यां नम: (अंगूठा और तर्जनी यानि पहली उंगली को आपस मे मिलाएं )
श्ल तर्जनीभ्यां नम: (अंगूठा और तर्जनी यानि पहली उंगली को आपस मे मिलाएं )
ईं मध्यमाभ्यां नम: (अंगूठा और मध्यमा यानि बीच वाली उंगली को आपस मे मिलाएं )
प अनामिकाभ्यां नम: (अंगूठा और अनामिका यानि तीसरी उंगली को आपस मे मिलाएं )
शु: कनिष्ठिकाभ्यां नम: (अंगूठा और कनिष्ठिका यानि छोटी उंगली को आपस मे मिलाएं )
हुं फट करतल करपृष्ठाभ्यां नम: (दोनों हाथों को आपस मे रगड़ दें )
हृदयादि न्यास :-
अपने हाथ से संबंधित अंगों को स्पर्श कर लें ।
ॐ हृदयाय नम:
श्ल शिरसे स्वाहा
ईं शिखायै वषट
प कवचाय हुं
शु: नेत्रत्रयाय वौषट
हुं फट अस्त्राय फट
ध्यान
मध्यान्ह अर्कसमप्रभं शशिधरं भीम अट्टहासोज्वलं
त्र्यक्षं पन्नगभूषणं शिखिशिखाश्मश्रू स्फुरन्मूर्धजम
हस्ताब्जैस्त्रिशिखं समुदगरमसिं शक्तिं दधानं विभुं
दंष्ट्राभीमचतुर्मुखं पशुपतिं दिव्यास्त्ररुपं स्मरेत !!
अर्थ :- जो मध्यान्ह कालीन अर्थात दोपहर के सूर्य के समान कांति से युक्त है , चंद्रमा को धारण किये हुये हैं । जिनका भयंकर अट्टहास अत्यंत प्रचंड है । उनके तीन नेत्र है तथा शरीर मे सर्पों का आभूषण सुशोभित हो रहा है ।
उनके ललाट मे स्थित तीसरे नेत्र से निकलती अग्नि की शिखा से श्मश्रू तथा केश दैदिप्यमान हो रहे है ।
जो अपने कर कमलो मे त्रिशूल , मुदगर , तलवार , तथा शक्ति धारण किये हुये है ऐसे दंष्ट्रा से भयानक चार मुख वाले दिव्य स्वरुपधारी सर्वव्यापक महादेव का मैं दिव्यास्त्र के रूप मे स्मरण करता हूँ ।
अब नीचे दिये हुये स्तोत्र का पाठ करे ..
हर बार फट की आवाज के साथ आप शिवलिंग पर बेलपत्र पुष्प या चावल समर्पित कर सकते हैं ।
यदि किसी सामग्री की व्यवस्था ना हो पाए तो हर बार फट की आवाज के साथ एक ताली बजाएं ।
पाशुपतास्त्र
ॐ नमो भगवते महापाशुपताय अतुलबलवीर्य पराक्रमाय त्रिपंचनयनाय नानारुपाय नाना प्रहरणोद्यताय सर्वांगरक्ताय भिन्नांजनचयप्रख्याय श्मशानवेतालप्रियाय सर्वविघ्न निकृंतनरताय सर्वसिद्धिप्रदाय भक्तानुकंपिने असंख्यवक्त्र-भुजपादाय तस्मिन सिद्धाय वेतालवित्रासने शाकिनीक्षोभजनकाय व्याधिनिग्रहकारिणे पापभंजनाय सूर्यसोमाग्निनेत्राय विष्णुकवचाय खडगवज्रहस्ताय यमदंडवरुणपाशाय रूद्रशूलाय ज्वलजिव्हाय सर्वरोगविद्रावणाय ग्रहनिग्रहकारिणे दुष्टनागक्षयकारिणे !
ॐ कृष्णपिंगलाय फट !
ॐ हूंकारास्त्राय फट !
ॐ वज्रहस्ताय फट !
ॐ शक्तये फट !
ॐ दंडाय फट !
ॐ यमाय फट !
ॐ खडगाय फट !
ॐ निऋताय फट !
ॐ वरुणाय फट !
ॐ वज्राय फट !
ॐ पाशाय फट !
ॐ ध्वजाय फट !
ॐ अंकुशाय फट !
ॐ गदायै फट !
ॐ कुबेराय फट !
ॐ त्रिशूलाय फट !
ॐ मुदगराय फट !
ॐ चक्राय फट !
ॐ पद्माय फट !
ॐ नागास्त्राय फट !
ॐ ईशानाय फट !
ॐ खेटकास्त्राय फट !
ॐ मुंडाय फट !
ॐ मुंडास्त्राय फट !
ॐ कंकालास्त्राय फट !
ॐ पिच्छिकास्त्राय फट !
ॐ क्षुरिकास्त्राय फट !
ॐ ब्रह्मास्त्राय फट !
ॐ शक्त्यास्त्राय फट !
ॐ गणास्त्राय फट !
ॐ सिद्धास्त्राय फट !
ॐ पिलिपिच्छास्त्राय फट !
ॐ गंधर्वास्त्राय फट !
ॐ पूर्वास्त्राय फट !
ॐ दक्षिणास्त्राय फट !
ॐ वामास्त्राय फट !
ॐ पश्चिमास्त्राय फट !
ॐ मंत्रास्त्राय फट !
ॐ शाकिनि अस्त्राय फट !
ॐ योगिनी अस्त्राय फट !
ॐ दंडास्त्राय फट !
ॐ महादंडास्त्राय फट !
ॐ नमो अस्त्राय फट !
ॐ शिवास्त्राय फट !
ॐ ईशानास्त्राय फट !
ॐ पुरुषास्त्राय फट !
ॐ अघोरास्त्राय फट !
ॐ सद्योजातास्त्राय फट !
ॐ हृदयास्त्राय फट !
ॐ महास्त्राय फट !
ॐ गरुडास्त्राय फट !
ॐ राक्षसास्त्राय फट !
ॐ दानवास्त्राय फट !
ॐ क्षौं नरसिंहास्त्राय फट !
ॐ त्वष्ट्र अस्त्राय फट !
ॐ सर्वास्त्राय फट !
ॐ न: फट !
ॐ व: फट !
ॐ प: फट !
ॐ फ: फट !
ॐ म: फट !
ॐ श्री: फट !
ॐ पें फट !
ॐ भू: फट !
ॐ भुव: फट !
ॐ स्व: फट !
ॐ मह: फट !
ॐ जन: फट !
ॐ तप: फट !
ॐ सत्यं फट !
ॐ सर्व लोक फट !
ॐ सर्व पाताल फट !
ॐ सर्व तत्त्व फट !
ॐ सर्व प्राण फट !
ॐ सर्व नाडी फट !
ॐ सर्व कारण फट !
ॐ सर्व देव फट !
ॐ ह्रीम फट !
ॐ श्रीं फट !
ॐ ह्रूं फट !
ॐ स्त्रूं फट !
ॐ स्वां फट !
ॐ लां फट !
ॐ वैराग्यस्त्राय फट !
ॐ मायास्त्राय फट !
ॐ कामास्त्राय फट !
ॐ क्षेत्रपालास्त्राय फट !
ॐ हुंकारास्त्राय फट !
ॐ भास्करास्त्राय फट !
ॐ चंद्रास्त्राय फट !
ॐ विघ्नेश्वरास्त्राय फट !
ॐ गौ: गां फट !
ॐ ख्रों ख्रौं फट !
ॐ हौं हों फट !
ॐ भ्रामय भ्रामय फट !
ॐ संतापय संतापय फट !
ॐ छादय छादय फट !
ॐ उन्मूलय उन्मूलय फट !
ॐ त्रासय त्रासय फट !
ॐ संजीवय संजीवय फट !
ॐ विद्रावय विद्रावय फट !
ॐ सर्वदुरितं नाशय नाशय फट !
ॐ श्लीं पशुं हुं फट स्वाहा !
अंत मे एक नींबू काटकर शिवलिंग पर निचोड़ कर अर्पित कर दें ।
दोनों कान पकड़कर किसी भी प्रकार की त्रुटि के लिए क्षमा प्रार्थना करें ।
यदि आपको अपने घर में बार बार सांप दिखाई देते हो .....
आपकी कुंडली में कालसर्प दोष हो.........
या आप भगवान शिव के गण के रूप में नाग देवता की पूजा करना चाहते हो तो आप इस सर्प सूक्त का प्रयोग कर सकते हैं ।
सर्प सूक्त
ब्रह्मलोकेषु ये सर्पा: शेषनागपुरोगमा: ।।
नमोSस्तु तेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीतो मम सर्वदा।। 1।।
इन्द्रलोकेषु ये सर्पा: वासुकि प्रमुखास्तथा।
नमोSस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीतो मम सर्वदा।।2।।
कद्रवेयश्च ये सर्पा: मातृभक्ति परायणा:।
नमोSस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीतो मम सर्वदा।।3।।
इन्द्रलोकेषु ये सर्पा: तक्षका प्रमुखास्तथा।
नमोSस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीतो मम सर्वदा।।4।।
सत्यलोकेषु ये सर्पा: वासुकिना च रक्षिता।
नमोSस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीतो मम सर्वदा।।5।।
मलये चैव ये सर्पा: कर्कोटक प्रमुखास्तथा।
नमोSस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीतो मम सर्वदा।।6।।
पृथिव्यां चैव ये सर्पा: ये च साकेत वासिन:।
नमोSस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीतो मम सर्वदा।।7।।
सर्वग्रामेषु ये सर्पा: वसंतिषु संच्छिता।
नमोSस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीतो मम सर्वदा।।8।।
ग्रामे वा यदि वारण्ये ये सर्पा: प्रचरन्ति च।
नमोSस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीतो मम सर्वदा।।9।।
समुद्रतीरे च ये सर्पा: ये सर्पा जलवासिन:।
नमोSस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीतो मम सर्वदा।।10।।
रसातलेषु ये सर्पा: अनन्तादि महाबला:।
नमोSस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीतो मम सर्वदा।।11।।
इसका उच्चारण देखें
रुद्राष्टकम
नमामीशमीशान निर्वाण रूपं, विभुं व्यापकं ब्रह्म वेद: स्वरूपम्।
निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं, चिदाकाश माकाशवासं भजेऽहम्॥
निराकार मोंकार मूलं तुरीयं, गिराज्ञान गोतीतमीशं गिरीशम्।
करालं महाकाल कालं कृपालुं, गुणागार संसार पारं नतोऽहम्॥
तुषाराद्रि संकाश गौरं गभीरं, मनोभूत कोटि प्रभा श्री शरीरम्।
स्फुरन्मौलि कल्लोलिनी चारू गंगा, लसद्भाल बालेन्दु कण्ठे भुजंगा॥
चलत्कुण्डलं शुभ्र नेत्रं विशालं, प्रसन्नाननं नीलकण्ठं दयालुम्।
मृगाधीश चर्माम्बरं मुण्डमालं, प्रिय शंकरं सर्वनाथं भजामि॥
प्रचण्डं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं, अखण्डं अजं भानु कोटि प्रकाशम्।
त्रय:शूल निर्मूलनं शूलपाणिं, भजे अहं भवानीपतिं भाव गम्यम्॥
कलातीत-कल्याण-कल्पांतकारी, सदा सज्जनानन्द दातापुरारी।
चिदानन्द सन्दोह मोहापहारी, प्रसीद-प्रसीद प्रभो मन्मथारी॥
न यावद् उमानाथ पादारविन्दं, भजंतीह लोके परे वा नाराणम्।
न तावत्सुखं शांति संताप नाशं, प्रसीद प्रभो सर्वभुताधिवासम् ॥
न जानामि योगं जपं नैव पूजा, न तोऽहम् सदा सर्वदा शम्भू तुभ्यम्।
जरा जन्म दु:खौद्य तातप्यमानं, प्रभो पाहि आपन्नमामीश शम्भो॥
रूद्राष्टक इदं प्रोक्तं विप्रेण हरतोषये,ये पठंति नरा भक्त्या तेषां शम्भु प्रसीदति ॥
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श्री नीलकंठ स्तोत्र
संकल्प:(विनियोग ):-
ओम अस्य श्री नीलकंठ स्तोत्र-मन्त्रस्य ब्रह्म ऋषि अनुष्टुप छंद :नीलकंठो सदाशिवो देवता ब्रह्म्बीजम पार्वती शक्ति:शिव इति कीलकं मम काय जीव स्वरक्षनार्थे सर्वारिस्ट विनाशानार्थेचतुर्विध पुरुषार्थ सिद्धिअर्थे भक्ति-मुक्ति सिद्धि अर्थे श्री परमेश्वर प्रीत्यर्थे च जपे पाठे विनियोग:
स्तोत्र मंत्र :-
।। ओम नमो नीलकंठाय श्वेत शरीराय नमः ।
सर्पालंकृत भूषणाय नमः ।
भुजंग परिकराय नाग यग्नोपवीताय नमः ।
अनेक काल मृत्यु विनाशनाय नमः ।
युगयुगान्त काल प्रलय प्रचंडाय नमः ।
ज्वलंमुखाय नमः ।
दंष्ट्रा कराल घोर रुपाय नमः हुं हुं फट स्वाहा,
ज्वालामुख मंत्र करालाय नमः ।
प्रचंडार्क सह्स्त्रान्शु प्रचंडाय नमः ।
कर्पुरामोद परिमलांग सुगंधिताय नमः ।
इन्द्रनील महानील वज्र वैदूर्यमणि माणिक्य मुकुट भूषणाय नमः ।
श्री अघोरास्त्र मूल मन्त्रस्य नमः ।
ओम ह्रां स्फुर स्फुर ओम ह्रीं स्फुर स्फुर ओम ह्रूं स्फुर स्फुर अघोर घोरतरस्य नमः ।
रथ रथ तत्र तत्र चट चट कह कह मद मद मदन दहनाय नमः ।
श्री अघोरास्त्र मूल मन्त्राय नमः ।
ज्वलन मरणभय क्षयं हूं फट स्वाहा ।
अनंत घोर ज्वर मरण भय कुष्ठ व्याधि विनाशनाय नमः ।
डाकिनी शाकिनी ब्रह्मराक्षस दैत्य दानव बन्धनाय नमः ।
अपर पारभुत वेताल कुष्मांड सर्वग्रह विनाशनाय नमः ।
यन्त्र कोष्ठ करालाय नमः ।
सर्वापद विच्छेदनाय नमः हूं हूं फट स्वाहा ।
आत्म मंत्र सुरक्षणाय नमः ।
ओम ह्रां ह्रीं ह्रूं नमो भुत डामर ज्वाला वश भूतानां द्वादश भूतानां त्रयोदश भूतानां पंचदश डाकिनीना हन् हन् दह दह नाशय नाशय एकाहिक द्याहिक चतुराहिक पंच्वाहिक व्याप्ताय नमः ।
आपादंत सन्निपात वातादि हिक्का कफादी कास्श्वासादिक दह दह छिन्दि छिन्दि,
श्री महादेव निर्मित स्तम्भन मोहन वश्यआकर्षण उच्चाटन कीलन उद्दासन इति षटकर्म विनाशनाय नमः ।
अनंत वासुकी तक्षक कर्कोटक शंखपाल विजय पद्म महापद्म एलापत्र नाना नागानां कुलकादी विषं छिन्धि छिन्धि भिन्धि भिन्धि प्रवेशय प्रवेशय शीघ्रं शीघ्रं हूं हूं फट स्वाहा ।।
वातज्वर मरणभय छिन्दि छिन्दि हन् हन्: ,
भुतज्वर प्रेतज्वर पिशाचज्वर रात्रिज्वर शीतज्वर सन्निपातज्वर ,
ग्रहज्वर विषमज्वर कुमारज्वर तापज्वर ब्रह्मज्वर विष्णुज्वर ,
महेशज्वर आवश्यकज्वर कामाग्निविषय ज्वर मरीची- ज्वारादी प्रबल दंडधराय नमः ।
परमेश्वराय नमः ।
आवेशय आवेशय शीघ्रं शीघ्रं हूं हूं फट स्वाहा ।
चोर मृत्यु ग्रह व्यघ्रासर्पादी विषभय विनाशनाय नमः ।
मोहन मन्त्राणाम , पर विद्या छेदन मन्त्राणाम , ओम ह्रां ह्रीं ह्रूं कुली लीं लीं हूं क्ष कूं कूं हूं हूं फट स्वाहा,
नमो नीलकंठाय नमः ।
दक्षाध्वरहराय नमः ।
श्री नीलकंठाय नमः , ओम ।।
यह अत्यंत तीक्ष्ण तथा प्रचंड स्तोत्र है , इसलिए पाठ जब शुरू हो उन दिनों में एक कप गाय के दूध में आधा चम्मच गाय के घी को मिलकर रात्री मे सेवन करना चाहिए जिससे शरीर में बढ़ने वाली गर्मी पर काबू रख सके वर्ना गुदामार्ग से खून आने की संभावना हो सकती हैं ।
एक दिन मे इसका एक बार पाठ करें ।. एक दिन मे सामान्य गृहस्थों को ज्यादा से ज्यादा तीन पाठ करने चाहिए ।साधक तथा योगी इससे ज्यादा भी कर सकते हैं ।
इस मंत्र को शिव मंदिर में जाकर शिव जी का पंचोपचार पूजन करके करना श्रेष्ट है , यदि शिव मंदिर मे संभव न हो तो एकांत कक्ष मे या पूजा कक्ष मे भी कर सकते हैं । अपने सामने शिवलिंग या शिवचित्र या महामाया का चित्र या यंत्र रखके करें ।.
यह आप पूरे सावन मास मे कर सकते हैं ।
इसके अलावा भी आप किसी भी दिन इसे कर सकते हैं ।.
शिव कृपा , तंत्र बाधा निवारण , सर्वविध रक्षा प्रदायक तथा रोगनाशन करने वाला स्तोत्र है ।