4 अगस्त 2015

श्री नीलकंठ स्तोत्र-मन्त्र

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संकल्प:(विनियोग ):>
ओम अस्य श्री नीलकंठ स्तोत्र-मन्त्रस्य ब्रह्म ऋषि अनुष्टुप छंद :नीलकंठो सदाशिवो देवता ब्रह्म्बीजम पार्वती शक्ति:शिव इति कीलकं मम काय जीव स्वरक्षनार्थे सर्वारिस्ट विनाशार्थेचतुर्विद्या पुरुषार्थ सिद्धिअर्थे भक्ति-मुक्ति
सिद्धिअर्थे श्री परमेश्वर प्रीत्यर्थे च जपे पाठे विनियोग:
>मंत्र प्रयोग<
ओम नमो नीलकंठाय श्वेत शरीराय नमःसर्पलिंकृत भुषनाय नमः भुजंग परिकराय नाग यग्नोपविताय नमः,अनेक
काल मृत्यु विनाशनाय नमः,युगयुगान्त काल प्रलय प्रचंडाय नमः ज्वलंमुखाय नमः दंष्ट्रा कराल घोर रुपाय नमः
हुं हुं फट स्वाहा,ज्वालामुख मंत्र करालाय नमः,प्रचंडार्क सह्स्त्रान्शु प्रचंडाय नमः कर्पुरामोद परिमलांग सुगंधीताय
नमः इन्द्रनील महानील वज्र वैदूर्यमणि माणिक्य मुकुट भूषणाय नमः श्री अघोरास्त्र मूल मन्त्रस्य नमः
ओम ह्रां स्फुर स्फुर ओम ह्रीं स्फुर स्फुर ओम ह्रूं स्फुर स्फुर अघोर घोरतरस्य नमः रथ रथ तत्र तत्र चट चट कह कह
मद मदन दहनाय नमः
श्री अघोरास्य मूल मन्त्राय नमः ज्वलन मरणभय क्षयं हूं फट स्वाहा अनंत घोर ज्वर मरण भय कुष्ठ व्याधि विनाशनाय नमः डाकिनी शाकिनी ब्रह्मराक्षस दैत्य दानव बन्धनाय नमः अपर पारभुत वेताल कुष्मांड सर्वग्रह विनाशनाय नमः यन्त्र कोष्ठ करालाय नमः सर्वापद विच्छेदाय नमः हूं हूं फट स्वाहा आत्म मंत्र सुरक्ष्नाय नमः
ओम ह्रां ह्रीं ह्रूं नमो भुत डामर ज्वाला वश भूतानां द्वादश भूतानां त्रयोदश भूतानां पंचदश डाकिनीना हन् हन् दह दह
नाशन नाशन एकाहिक द्याहिक चतुराहिक पंच्वाहिक व्यप्ताय नमः
आपादंत सन्निपात वातादि हिक्का कफादी कास्श्वासादिक दह दह छिन्दि छिन्दि श्री महादेव निर्मित स्तम्भन मोहन वश्यआकर्षणों उच्चाटन किलन उद्दासन इति षटकर्म विनाशनाय नमः
अनंत वासुकी तक्षक कर्कोटक शंखपाल विजय पद्म महापद्म एलापत्र नाना नागानां कुलकादी विषं छिन्धि छिन्धि भिन्धि भिन्धि प्रवेशाये शीघ्रं शीघ्रं हूं हूं फट स्वाहा
वातज्वर मरणभय छिन्दि छिन्दि हन् हन्:भुतज्वर प्रेतज्वर पिशाचाज्वर रात्रिज्वर शीतज्वर सन्निपातज्वर ग्रह
ज्वर विषमज्वर कुमारज्वर तापज्वर ब्रह्मज्वर विष्णुज्वर महेशज्वर आवश्यकज्वर कामाग्निविषय ज्वर मरीची- ज्वारादी प्रबल दंडधराय नमः परमेश्वराय नमः
आवेशय आवेशय शीघ्रं शीघ्रं हूं हूं फट स्वाहा चोर मृत्यु ग्रह व्यघ्रासर्पादी विषभय विनाशनाय नमः मोहन मन्त्राणा
पर विद्या छेदन मन्त्राणा, ओम ह्रां ह्रीं ह्रूं कुली लीं लीं हूं क्ष कूं कूं हूं हूं फट स्वाहा, नमो नीलकंठाय नमः दक्षाध्वरहराय
नमः श्री नीलकंठाय नमः ओम

पाठ जब शुरू हो उन दिनों में एक कप गाय के दूध में एक चम्मच गाय के घी का सेवन करना ही चाहिए जिससे शारीर में बढ़ने वाली गर्मी पर काबू रख सके वर्ना गुदामार्ग से खून बहार आने की संभावना हो सकती हैं इस मंत्र को शिव मंदिर में जाकर शिव जी का पंचोपचार पूजन करके करना चाहिए,कमसे कम एक और ज्यादा से ज्यादा तीन पाठ करने चाहिए १०८ पाठ करने पर यह सिद्ध हो जाता हैं.

अघोरेश्वर महादेव साधना

नोट -  
  • केवल अघोर पंथ में दीक्षित  साधकों के लिए है.
  • यह साधना अनुभवी साधक की देख रेख में ही करें.
  • गुरु से अनुमति लेकर ही यह साधना करेंगे.





॥ ऊं अघोरेश्वराय महाकालाय नमः ॥
  • १,२५,००० मंत्र का जाप .
  • दिगंबर/नग्न  अवस्था में जाप करें
  • अघोरी साधक श्मशान की चिताभस्म का पूरे शारीर पर लेप करके जाप करते हैं. 
  • लेकिन गृहस्थ साधकों के लिए  चिताभस्म निषिद्ध है. वे इसका उपयोग नहीं  करें. यह गम्भीर  नुकसान कर सकता है.
  • गृहस्थ साधक अपने शरीर पर गोबर के कंडे  की राख से त्रिपुंड बनाएं . यदि सम्भव हो तो पूरे शरीर पर लगाएं.
  • जाप के बाद स्नान करने के बाद सामान्य कार्य कर सकते हैं.
  • जाप से प्रबल ऊर्जा उठेगी, किसी पर क्रोधित होकर या स्त्री सम्बन्ध से यह उर्जा विसर्जित हो जायेगी . इसलिए पूरे साधना काल में क्रोध और काम से बचकर रहें.
  • शिव कृपा होगी.
  • रुद्राक्ष पहने तथा रुद्राक्ष की माला से जाप करें.
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---------------------- न गुरोरधिकम --------------------
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13 जुलाई 2015

साधना सिद्धि विज्ञान महाकाल विशेषांक

साधना सिद्धि विज्ञान का जुलाई अंक महाकाल विशेषांक के रुप मेँ प्रकाशित हुआ हे
साधना सिद्धि विज्ञान अपनी प्रमाणिकता के लिए पूरे भारतवर्ष मेँ प्रसिद्ध हे इस मेँ अभूतपूर्व मंत्र और साधना पद्धति योग का विवरण दिया जाता हे जो तंत्र क्षेत्र मेँ विभिन्न साधनाएँ और पूजन करने के इच्छुक है उनको इस पत्रिका की सदस्यता अवश्य लेनी चाहिए।

12 जुलाई 2015

महालक्ष्मी कवचम्

|| महालक्ष्मी कवच ||
नारायण उवाच
सर्व सम्पत्प्रदस्यास्य कवचस्य प्रजापतिः।
ऋषिश्छन्दश्च बृहती देवी पद्मालया स्वयम्॥१॥
धर्मार्थकाममोक्षेषु विनियोगः प्रकीर्तितः।
पुण्यबीजं च महतां कवचं परमाद्भुतम्॥२॥


ॐ ह्रीं कमलवासिन्यै स्वाहा मे पातु मस्तकम्।
श्रीं मे पातु कपालं च लोचने श्रीं श्रियै नमः॥३॥
ॐ श्रीं श्रियै स्वाहेति च कर्णयुग्मं सदावतु।
ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं महालक्ष्म्यै स्वाहा मे पातु नासिकाम्॥४॥
ॐ श्रीं पद्मालयायै च स्वाहा दन्तं सदावतु।
ॐ श्रीं कृष्णप्रियायै च दन्तरन्ध्रं सदावतु॥५॥
ॐ श्रीं नारायणेशायै मम कण्ठं सदावतु।
ॐ श्रीं केशवकान्तायै मम स्कन्धं सदावतु॥६॥
ॐ श्रीं पद्मनिवासिन्यै स्वाहा नाभिं सदावतु।
ॐ ह्रीं श्रीं संसारमात्रे मम वक्षः सदावतु॥७॥
ॐ श्रीं श्रीं कृष्णकान्तायै स्वाहा पृष्ठं सदावतु।
ॐ ह्रीं श्रीं श्रियै स्वाहा मम हस्तौ सदावतु॥८॥
ॐ श्रीं निवासकान्तायै मम पादौ सदावतु।
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं श्रियै स्वाहा सर्वांगं मे सदावतु॥९॥
प्राच्यां पातु महालक्ष्मीराग्नेय्यां कमलालया।
पद्मा मां दक्षिणे पातु नैर्ऋत्यां श्रीहरिप्रिया॥१०॥
पद्मालया पश्चिमे मां वायव्यां पातु श्रीः स्वयम्।
उत्तरे कमला पातु ऐशान्यां सिन्धुकन्यका॥११॥
नारायणेशी पातूर्ध्वमधो विष्णुप्रियावतु।
संततं सर्वतः पातु विष्णुप्राणाधिका मम॥१२॥


इति ते कथितं वत्स सर्वमन्त्रौघविग्रहम्।
सर्वैश्वर्यप्रदं नाम कवचं परमाद्भुतम्॥१३॥
सुवर्णपर्वतं दत्त्वा मेरुतुल्यं द्विजातये।
यत् फलं लभते धर्मी कवचेन ततोऽधिकम्॥१४॥
गुरुमभ्यर्च्य विधिवत् कवचं धारयेत् तु यः।
कण्ठे वा दक्षिणे वाहौ स श्रीमान् प्रतिजन्मनि॥१५॥
अस्ति लक्ष्मीर्गृहे तस्य निश्चला शतपूरुषम्।
देवेन्द्रैश्चासुरेन्द्रैश्च सोऽत्रध्यो निश्चितं भवेत्॥१६॥
स सर्वपुण्यवान् धीमान् सर्वयज्ञेषु दीक्षितः।
स स्नातः सर्वतीर्थेषु यस्येदं कवचं गले॥१७॥
यस्मै कस्मै न दातव्यं लोभमोहभयैरपि।
गुरुभक्ताय शिष्याय शरणाय प्रकाशयेत्॥१८॥
इदं कवचमज्ञात्वा जपेल्लक्ष्मीं जगत्प्सूम्।
कोटिसंख्यं प्रजप्तोऽपि न मन्त्रः सोद्धिदायकः॥१९॥