एक प्रयास सनातन धर्म[Sanatan Dharma] के महासमुद्र मे गोता लगाने का.....कुछ रहस्यमयी शक्तियों [shakti] से साक्षात्कार करने का.....गुरुदेव Dr. Narayan Dutt Shrimali Ji [ Nikhileswaranand Ji] की कृपा से प्राप्त Mantra Tantra Yantra विद्याओं को समझने का......
Kali, Sri Yantra, Laxmi,Shiv,Kundalini, Kamkala Kali, Tripur Sundari, Maha Tara ,Tantra Sar Samuchhay , Mantra Maharnav, Mahakal Samhita, Devi,Devata,Yakshini,Apsara,Tantra, Shabar Mantra, जैसी गूढ़ विद्याओ को सीखने का....
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कलयुग में देवी चंडिका और भगवान गणेश को सहज ही प्रसन्न होने वाला माना गया है इसलिए नवार्ण मंत्र का जाप करके आप साधना के क्षेत्र में धीरे-धीरे आगे बढ़ सकते हैं।
नवार्ण मंत्र
।। ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ।।
इसमे तीन बीज मंत्र हैं जो क्रमशः महासरस्वती महालक्ष्मी और महाकाली के बीजमन्त्र हैं । इसलिए सभी मनोकामनाओं के लिए इसे जप सकते हैं ।
बहुत ज्यादा विधि विधान नहीं जानते हो तो आप केवल अपने सामने दीपक जलाकर मंत्र जाप कर सकते हैं ।
मंत्र जाप की संख्या अपनी क्षमता के अनुसार निर्धारित कर लें कम से कम 108 बार मंत्र जाप करना चाहिए ।
अर्थ - शिव जी बोले-देवी! सुनो। मैं उत्तम कुंजिका स्तोत्र बताता हूँ, जिस मन्त्र(स्तोत्र) के प्रभाव से देवी का जप (पाठ) शुभ (सफल) होता है ।
न कवचं न अर्गला स्तोत्रं कीलकं न रहस्यकम । न सूक्तं नापि ध्यानं च न न्यासो न च वा अर्चनं ॥ २॥
अर्थ - (इसका पाठ करने से)कवच, अर्गला, कीलक, रहस्य, सूक्त, ध्यान, न्यास यहाँ तक कि अर्चन भी आवश्यक नहीं है ।
कुंजिका पाठमात्रेण दुर्गापाठफलं लभेत । अति गुह्यतरं देवी देवानामपि दुर्लभं ॥ ३॥
अर्थ - केवल कुंजिका स्तोत्र के पाठ कर लेने से दुर्गापाठ का फल प्राप्त हो जाता है। (यह कुंजिका) अत्यंत गोपनीय और देवताओं के लिए भी दुर्लभ है अर्थात इतना महत्वपूर्ण है ।
गोपनीयं प्रयत्नेन स्वयोनिरिव पार्वति । मारणं मोहनं वश्यं स्तंभनं उच्चाटनादिकम । पाठ मात्रेण संसिद्धयेत कुंजिकास्तोत्रं उत्तमम ॥ ४ ॥ अर्थ - हे पार्वती! जिस प्रकार स्त्री अपने गुप्त भाग (स्वयोनि) को सबसे गुप्त रखती है अर्थात छुपाकर या ढँककर रखती है उसी भांति इस कुंजिका स्तोत्र को भी प्रयत्नपूर्वक गुप्त रखना चाहिए। यह कुंजिकास्तोत्र इतना उत्तम (प्रभावशाली ) है कि केवल इसके पाठ के द्वारा मारण, मोहन, वशीकरण, स्तम्भन और उच्चाटन आदि (अभिचारिक षट कर्मों ) को सिद्ध करता है ( अभीष्ट फल प्रदान करता है ) ।
अर्थ - हे रुद्ररूपिणी! तुम्हे नमन है । हे मधु नामक दैत्य का मर्दन करने (मारने) वाली! तुम्हे नमस्कार है। कैटभ और महिषासुर नामक दैत्यों को मारने वाली माई ! मैं आपके श्री चरणों मे प्रणाम करता हूँ ।.
नमस्ते शूम्भहंत्र्यै च निशुंभासुरघातिनि ॥ जाग्रतं हि महादेवि जपं सिद्धं कुरुष्व मे ॥2॥
अर्थ - दैत्य शुम्भ का हनन करने (मारने) वाली और दैत्य निशुम्भ का घात करने (मारने) वाली! माता मैं तुम्हें प्रणाम करता हूँ आप मेरे जप (पाठ द्वारा इस कुंजिका स्तोत्र)को जाग्रत और (मेरे लिए)सिद्ध करो।
अर्थ - ऐंकार ( ऐं बीज मंत्र जो कि सृष्टि कर्ता ब्रह्मा की शक्ति सरस्वती का बीज मंत्र है ) के रूप में सृष्टिरूपिणी( उत्पत्ति करने वाली ), ‘ह्रीं’ ( भुवनेश्वरी महालक्ष्मी बीज जो कि पालन कर्ता श्री हरि विष्णु की शक्ति है )के रूप में सृष्टि का पालन करने वाली क्लीं (काम / काली बीज )के रूप में क्रियाशील होने वाली बीजरूपिणी (सबका मूल या बीज स्वरूप वाली ) हे देवी! मैं तुम्हे बारम्बार नमस्कार करता हूँ ।
अर्थ - (नवार्ण मंत्र मे प्रयुक्त "चामुंडायै" शब्द मे )"चामुंडा" के रूप में तुम मुण्ड(अहंकार और दुष्टता का) विनाश करने वाली हो, और ‘यैकार’ के रूप में वर देने वाली (भक्त की रक्षा और उसकी मनोकामना की पूर्ति प्रदान करने वाली )हो । ’विच्चे’ रूप में तुम नित्य ही अभय देती हो।(इस प्रकार आप स्वयं नवार्ण मंत्र "ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ") मन्त्र का स्वरुप हो ।
धां धीं धूं’ के रूप में धूर्जटी (शिव) की तुम पत्नी हो। ‘वां वीं वूं’ के रूप में तुम वाणी की अधीश्वरी हो। ‘क्रां क्रीं क्रूं’ के रूप में कालिकादेवी, ‘शां शीं शूं’ के रूप में मेरा शुभ अर्थात कल्याण करो, मेरा अभीष्ट सिद्ध करो ।.
बीजमंत्रों मे (वायु बीज)'हुं हुं हुंकार’ के स्वरूप वाली , ‘जं जं जं’ (जं बीज का नाद करने वाली)जम्भनादिनी, ‘भ्रां भ्रीं भ्रूं’ के रूप में (भैरव बीज स्वरूपा भैरवी शक्ति ), संसार मे भद्रता(सज्जनता) की स्थापना करने वाली हे भवानी! मैं आपको बारंबार प्रणाम करता हूँ ।.
।।7।।’अं कं चं टं तं पं यं शं वीं दुं ऐं वीं हं क्षं ’ इन सब बीज मंत्रों को जागृत करो, मेरे सभी पाशों को तोड़ो और मेरी चेतना को दीप्त ( प्रकाशित या उज्ज्वल प्रकाशमान ) करो, और (न्युनताओं को भस्मीभूत ) स्वाहा करो ।
पां पीं पूं पार्वती पूर्णा खां खीं खूं खेचरी तथा ॥ सां सीं सूं सप्तशती देव्या मंत्रसिद्धीं कुरुष्व मे ॥8॥
’पां पीं पूं’ के रूप में तुम पार्वती अर्थात भगवान शिव की पूर्णा शक्ति हो। ‘खां खीं खूं’ के रूप में तुम खेचरी (आकाशचारिणी) या परा शक्ति हो।।8।।’सां सीं सूं’ स्वरूपिणी सप्तशती देवी के इस विशिष्ट मन्त्र की मुझे सिद्धि प्रदान करो।
फलश्रुति:-
इदं तु कुंजिकास्तोत्रं मंत्रजागर्तिहेतवे ॥ अभक्ते नैव दातव्यं गोपितं रक्ष पार्वति ॥ यह सिद्धकुंजिका स्तोत्र (नवार्ण) मन्त्र को जगाने(चैतन्य करने /सिद्धि प्रदायक बनाने) के लिए है। इसे भक्तिहीन पुरुष को नहीं देना चाहिए। हे पार्वती ! इस मन्त्र को गुप्त रखकर इसकी रक्षा करनी चाहिए ।.
हे देवी ! जो बिना कुंजिका के सप्तशती का पाठ करता है उसे उसी प्रकार सिद्धि नहीं मिलती जिस प्रकार वन में (निर्जन स्थान पर जहां कोई देखने सुनने वाला न हो ) रोना निरर्थक होता है।
इति श्री रुद्रयामले गौरीतंत्रे शिवपार्वतीसंवादे कुंजिकास्तोत्रं संपूर्णम ॥
वर्तमान समय मे मेरे गुरुदेव डा नारायण दत्त श्रीमाली जी को सर्वश्रेष्ठ तंत्र मंत्र मर्मज्ञ के रूप मे निर्विवाद रूप से स्वीकार किया जाता है । आप उनके द्वारा सम्पन्न कराये गए विभिन्न मंत्र प्रयोगों को यूट्यूब पर सर्च करके देख और सुन सकते हैं । उनके प्रत्येक प्रयोग मे आप देख सकते हैं कि वे रक्षा के लिए कुंजिका स्तोत्र का ही पाठ प्रारम्भ मे करवाते थे । इसी से आप इसका महत्व और शक्ति को समझ सकते हैं ।.
नवरात्रि मे इसका 108 पाठ या जितना आप कर सकें दीपक जलाकर सम्पन्न करें और उसके बाद नित्य एक बार इसका पाठ करें तो आपके ऊपर छोटे मोटे तंत्र प्रयोग, टोने टोटके का असर ही नहीं होगा और बड़े तंत्र प्रयोग जैसे मारण अगर किए गए तो भी वे घातक नहीं हो पाएंगे । भगवती का यह सिद्ध स्तोत्र आपकी रक्षा कर लेगा ।
पारद शिवलिंग घर मे पॉज़िटिव एनर्जी लाता है और उसके घर मे रहने से तंत्र बाधा मे भी निवारक होता है ।
पारद काफी महंगा होता है । जो लगभग 25 हजार से 40 हजार रुपये किलो मे आता है । इसलिए सवा किलो का पारद शिवलिंग कम से कम 35-50 हजार के आसपास का मिलता है जिसकी साइज लगभग 3 इंच ऊंची और चार इंच के आसपास लंबी होती है । स्वाभाविक है कि इसे सभी अफोर्ड नहीं कर सकते हैं ।
काफी पाठकों ने पारद शिवलिंग के विषय मे जिज्ञासा दिखाई थी । इसे देखते हुये कुछ छोटे पारद शिवलिंग जो 20 से 25 ग्राम के बीच हैं वे आपके नाम से पूजन आदि करके आपको लगभग 1100 रुपये मे उपलब्ध कराने की व्यवस्था इस नवरात्रि मे कर रहा हूँ । अगर आप इच्छुक हैं तो निम्नलिखित जानकारियाँ मुझे मेरे नंबर 7000630499 पर शुल्क के साथ व्हात्सप्प कर सकते हैं :-
नाम ,
जन्म तिथि, समय स्थान ,गोत्र (मालूम हो तो ) ।
अपनी एक ताजा फोटो ।
शुल्क फोन पे करने के बाद उसकी रसीद ।
अपना पूरा पोस्टल एड्रेस और मोबाइल नंबर ।
शुल्क पेमेंट के लिए किसी भी यूपीआई एप्प जैसे फोन पे पर इस क्यूआर कोड़ का प्रयोग कर सकते हैं ।
यह स्तोत्र सर्वविध संकटों से मुक्ति की कामना के साथ भगवान की स्तुति में पढ़ा जा सकता है । पितृपक्ष में नित्य आप इस स्तोत्र को अपने पूर्वजों की शांति तथा मुक्ति के लिए पढ़ सकते हैं । सामान्यतः इसका पाठ सूर्योदय से पूर्व किया जाना श्रेष्ठ माना जाता है लेकिन आप चाहे तो इसे वीडियो देखकर बाद भी पढ़ सकते हैं । यदि आपको संस्कृत पढ़ने में दिक्कत हो तो आप उसका हिंदी अनुवाद भी पढ़ सकते हैं । वैसे संस्कृत का पाठ अगर आप दो-चार बार कर लेंगे तो आपको संस्कृत का पाठ भी आसान लगने लगेगा । इसके लिए आप प्रतिलिपि एफ एम पर जाकर मेरे चेनल मंत्र उच्चारण से इसका उच्चारण सुन सकते हैं ।. गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र की एक श्रेष्ठ विद्वान द्वारा हिंदी में लिखी हुई प्रतिकृति भी है जिसे अगले भाग में प्रकाशित करूंगा आप चाहे तो उसका पाठ भी कर सकते हैं यह सभी लगभग समान फलदाई है ।
बुद्धि के द्वारा पिछले अध्याय में वर्णित रीति से निश्चय करके तथा मन को हृदय देश में स्थिर करके वह गजराज अपने पूर्व जन्म में सीखकर कण्ठस्थ किये हुए सर्वश्रेष्ठ एवं बार बार दोहराने योग्य निम्नलिखित स्तोत्र का मन ही मन पाठ करने लगा ॥१॥
जिनकी चेतना को पाकर ये जड शरीर और मन आदि भी चेतन की भांति व्यवहार करने लगते हैं, ‘ओम’ शब्द के द्वारा लक्षित तथा सम्पूर्ण शरीर में प्रकृति एवं पुरुष रूप से प्रविष्ट हुए उन सर्व समर्थ परमेश्वर को मन ही मन प्रणाम है ॥२॥
वह, जिनके सहारे यह विश्व टिका है, जिनसे यह निकला है , जिन्होने इसकी रचना की है और जो स्वयं ही इसके रूप में प्रकट हैं – फिर भी जो इस दृश्य जगत से एवं इसकी कारणभूता प्रकृति से सर्वथा परे (विलक्षण ) एवं श्रेष्ठ हैं – उन स्वयंभू अर्थात अपने आप – बिना किसी कारण के – बने हुए भगवान की मैं शरण लेता हूं ॥३॥
यः स्वात्मनीदं निजमाययार्पितं क्वचिद्विभातं क्व च तत्तिरोहितम । अविद्धदृक साक्ष्युभयं तदीक्षते स आत्म मूलोsवत् मां परात्परः ॥४॥
वे प्रभु अपने संकल्प शक्ति के द्वारा अपने ही स्वरूप में रचे हुए हैं । सृष्टिकाल में प्रकट और प्रलयकाल में अप्रकट रहने वाले तथा इस शास्त्र प्रसिद्ध कार्य कारण रूप जगत को जो अकुण्ठित दृष्टि होने के कारण साक्षी रूप से देखते रहते हैं अर्थात उनसे लिप्त नही होते, वे चक्षु आदि प्रकाशकों के भी परम प्रकाशक अर्थात जो नेत्रों को देखने की शक्ति प्रदान करते हैं ऐसे प्रभु मेरी रक्षा करें ॥४॥
कालेन पंचत्वमितेषु कृत्स्नशो लोकेषु पालेषु च सर्व हेतुषु । तमस्तदाsसीद गहनं गभीरं यस्तस्य पारेsभिविराजते विभुः ॥५॥
(जहां s लिखा है वहाँ मात्रा को थोड़ा लंबा खींचकर उच्चरित करना है दाsसीद का उच्चारण होगा दाआसीद ) प्रलयकाल मे समय के प्रवाह से सम्पूर्ण लोकों के एवं ब्रह्मादि लोकपालों के पंचभूत में प्रवेश कर जाने पर तथा पंचभूतों से लेकर महत्वपर्यंत सम्पूर्ण कारणों के उनकी परमकरुणारूप प्रकृति में लीन हो जाने पर उस समय दुर्ज्ञेय तथा अपार अंधकाररूप प्रकृति ही बच रही थी। उस अंधकार मे भी उससे परे अपने परम धाम में जो सर्वव्यापक भगवान सर्वत्र प्रकाशित रहते हैं ऐसे मेरे प्रभु मेरी रक्षा करें ॥५॥
न यस्य देवा ऋषयः पदं विदुर्जन्तुः पुनः कोsर्हति गन्तुमीरितुम । यथा नटस्याकृतिभिर्विचेष्टतोदुरत्ययानुक्रमणः स मावतु ॥६॥
नाटक मे भिन्न भिन्न रूपों में नाट्य करने वाले अभिनेता के वास्तविक स्वरूप को जिस प्रकार साधारण दर्शक नही जान पाते , उसी प्रकार सत्त्व प्रधान देवता तथा ऋषि भी उन दिव्य प्रभु के स्वरूप को नही जानते , फिर दूसरा साधारण जीव कैसे उसे जान अथवा वर्णन कर सकता है – वे दुर्लभ चरित्र वाले प्रभु मेरी रक्षा करें ॥६॥
दिदृक्षवो यस्य पदं सुमंगलम विमुक्त संगा मुनयः सुसाधवः । चरन्त्यलोकव्रतमव्रणं वने भूतत्मभूता सुहृदः स मे गतिः ॥७॥
वे प्रभु जो आसक्ति से सर्वदा छूटे हुए , सम्पूर्ण प्राणियों में आत्मबुद्धि रखने वाले , सबके अकारण हितकारी है । अत्यंत सरल स्वभाव वाले मुनिगण जिनके परम मंगलमय स्वरूप का साक्षात्कार करने की इच्छा से वन में रह कर अखण्ड ब्रह्मचार्य आदि अलौकिक व्रतों का पालन करते हैं , वे प्रभु ही मेरी गति हैं ॥७॥
न विद्यते यस्य न जन्म कर्म वा न नाम रूपे गुणदोष एव वा । तथापि लोकाप्ययाम्भवाय यः स्वमायया तान्युलाकमृच्छति ॥८॥
जो जन्म मृत्यु से परे हैं । जिनका हमारी तरह कर्मवश ना तो जन्म होता है और न जिनके द्वारा अहंकार प्रेरित कर्म ही होते हैं, जिनके निर्गुण स्वरूप का न तो कोई नाम है न रूप ही, फिर भी समयानुसार जगत की सृष्टि एवं प्रलय (संहार) के लिये स्वेच्छा से जन्म आदि को स्वीकार करते हैं ॥८॥
जिनके कृपा कटाक्ष से आत्मा प्रकाश प्राप्त होता है और जो सबके साक्षी हैं ऐसे परमात्मा को नमस्कार है । उन प्रभु को जो मन, वाणी एवं चित्तवृत्तियों से भी सर्वथा परे हैं, उनको मेरा नमस्कार है ॥१०॥
विवेकी पुरुष के द्वारा जो सात्विक आचार विचार और वह संयुक्त है और वैसा ही आचरण करके उस परम मोक्ष सुख की अनुभूति को प्राप्त कर पाता है उसी अनुभूति के साक्षात रूप उस प्रभु को नमस्कार है ॥११॥
नमः शान्ताय घोराय मूढाय गुण धर्मिणे । निर्विशेषाय साम्याय नमो ज्ञानघनाय च ॥१२॥
सत्त्वगुण को स्वीकार करके शान्त , रजोगुण को स्वीकार करके घोर एवं तमोगुण को स्वीकार करके मूढ से प्रतीत होने वाले, तीनों अवस्थाओं में किसी भी प्रकार के भेद से रहित, सदा समभाव से स्थित ज्ञान के पूंजीभूत स्वरूप प्रभु को नमस्कार है ॥१२॥
क्षेत्र अर्थात इस संपूर्ण ब्रह्मांड में स्थित चराचर विंडो के स्वामी और उनकी गतिविधियों को साक्षी रूप से देखते रहने वाले मूल पुरुष स्वरूप और मूल प्रकृति स्वरूप प्रभु को मैं नमस्कार करता हूं ॥१३॥
सर्वेन्द्रियगुणद्रष्ट्रे सर्वप्रत्ययहेतवे । असताच्छाययोक्ताय सदाभासय ते नमः ॥१४॥
सम्पूर्ण इन्द्रियों एवं उनके विषयों के ज्ञाता, समस्त प्रतीतियों के कारण रूप, सम्पूर्ण जड-प्रपंच एवं सम्पूर्ण विषयों में विराजमान रहने वाले और अपना आभास देने वाले आपको नमस्कार है ॥१४॥
वे प्रभु जो सबके कारण हैं किंतु स्वयं कारण रहित हैं । जो कारण होने पर भी परिणाम रहित होने के कारण, अन्य कारणों से विलक्षण हैं इसलिए आपको बारम्बार नमस्कार है । सम्पूर्ण आगमों, आम्नायो के परम तात्पर्य भगवान को नमस्कार है ॥१५॥ ॥
जो त्रिगुणरूप काष्ठों में छिपे हुए ज्ञानरूप अग्नि हैं, उक्त गुणों में हलचल होने पर जिनके मन में सृष्टि रचने की बाह्य वृत्ति जागृत हो उठती है तथा आत्म तत्त्व की भावना के द्वारा ज्ञानी महात्माओं में जो स्वयं प्रकाशित हो रहे हैं उन प्रभु को मैं नमस्कार करता हूँ ॥१।६॥
मुझ जैसे शरणागत पशुतुल्य (अविद्याग्रस्त) जीव जो विभिन्न पाशों या बंधनों मे फंसे हुए हैं उन्हे सदा के लिये पूर्णरूप से काट देने वाले अत्याधिक दयालू नित्यमुक्त प्रभु को नमस्कार है । अपने अंश से संपूर्ण जीवों के मन में अन्तर्यामी रूप से प्रकट रहने वाले भगवन आप को नमस्कार है ॥१७॥
शरीर, पुत्र, मित्र, घर, संपंत्ती एवं कुटुंबियों के मोह मे फंसे लोगों के द्वारा कठिनता से प्राप्त होने वाले तथा इन प्रपंचों से मुक्त पुरुषों के द्वारा अपने हृदय में निरन्तर चिन्तित ज्ञानस्वरूप , सर्वसमर्थ भगवान को नमस्कार है ॥१८॥
जिन्हे धर्म, काम भोग, धन तथा मोक्ष की कामना से भजने वाले लोग अपनी मनचाही गति पा लेते हैं अपितु जो उन्हे अन्य प्रकार के भोग एवं अविनाशी देह भी देते हैं वे अतिशय दयालु प्रभु मुझे इस विपत्ती से सदा के लिये उबार लें ॥१९॥
एकान्तिनो यस्य न कंचनार्थ वांछन्ति ये वै भगवत्प्रपन्नाः । अत्यद्भुतं तच्चरितं सुमंगलं गायन्त आनन्न्द समुद्रमग्नाः ॥२०॥
जिनके अनन्य भक्त -जो वस्तुतः एकमात्र उन भगवान के ही शरण है-धर्म , अर्थ आदि किसी भी पदार्थ को नही चाह्ते, अपितु उन्ही के परम मंगलमय एवं अत्यन्त विलक्षण चरित्रों का गान करते हुए आनन्द के समुद्र में गोते लगाते रहते हैं ॥२०॥
उन अविनाशी, सर्वव्यापक, सर्वश्रेष्ठ, ब्रह्मादि के भी नियामक, अभक्तों के लिये प्रकट होने पर भी भक्तियोग द्वारा प्राप्त करने योग्य, अत्यन्त निकट होने पर भी माया के आवरण के कारण अत्यन्त दूर प्रतीत होने वाले , इन्द्रियों के द्वारा अगम्य तथा अत्यन्त दुर्विज्ञेय, अन्तरहित किंतु सबके आदिकारण एवं सब ओर से परिपूर्ण उन भगवान की मैं स्तुति करता हूँ ॥२१॥
इस प्रकृति में दिखाई देने वाले ब्रह्मादि समस्त देवता, चारों वेद तथा संपूर्ण चराचर जीव नाम और आकृति भेद से जिनके अत्यन्त क्षुद्र अंश के द्वारा रचे गये हैं ॥२२॥
जिस प्रकार प्रज्ज्वलित अग्नि से लपटें तथा सूर्य से किरणें बार बार निकलती है और पुनः अपने कारण मे लीन हो जाती है उसी प्रकार बुद्धि, मन, इन्द्रियाँ और नाना योनियों के शरीर – यह गुणमय प्रपंच उसी परमात्मा से प्रकट होता है और पुनः उन्ही में लीन हो जाता है ॥२३॥
स वै न देवासुरमर्त्यतिर्यंग न स्त्री न षण्डो न पुमान न जन्तुः । नायं गुणः कर्म न सन्न चासन निषेधशेषो जयतादशेषः ॥२४॥
वे भगवान न तो देवता हैं न असुर, न मनुष्य हैं न तिर्यक (मनुष्य से नीची – पशु , पक्षी आदि किसी) योनि के प्राणी है । न वे स्त्री हैं न पुरुष और न नपुंसक ही हैं । न वे ऐसे कोई जीव हैं, जिनका इन तीनों ही श्रेणियों में समावेश हो सके । न वे गुण हैं न कर्म, न कार्य हैं न तो कारण ही । सबका निषेध हो जाने पर जो कुछ बच रहता है, वही उनका स्वरूप है और वे ही सब कुछ है । ॥२४॥
मैं इस ग्राह के चंगुल से छूट कर जीवित नही रहना चाहता; क्योंकि भीतर और बाहर – सब ओर से अज्ञान से ढके हुए इस हाथी के शरीर से मुझे क्या लेना है । मैं तो आत्मा के प्रकाश को ढक देने वाले उस अज्ञान की निवृत्ति चाहता हूँ, जिसका कालक्रम से अपने आप नाश नही होता , अपितु भगवान की दया से अथवा ज्ञान के उदय से होता है ॥२५॥
इस प्रकार मोक्ष का अभिलाषी मैं विश्व के रचियता, स्वयं विश्व के रूप में प्रकट तथा विश्व से सर्वथा परे, विश्व को खिलौना बनाकर खेलने वाले, विश्व में आत्मरूप से व्याप्त , अजन्मा, सर्वव्यापक एवं प्राप्त्य वस्तुओं में सर्वश्रेष्ठ श्री भगवान को प्रणाम करता हुआ उनकी शरण में हूँ ॥२६॥
जिन्होने भगवद्भक्ति रूप योग के द्वारा कर्मों को जला डाला है, वे योगी लोग उसी योग के द्वारा शुद्ध किये हुए अपने हृदय कमल में जिन्हे प्रकट हुआ देखते हैं उन योगेश्वर भगवान को मैं नमस्कार करता हूँ ॥२७॥
जिनकी त्रिगुणात्मक (सत्त्व-रज-तमरूप ) शक्तियों का रागरूप वेग असह्य है, जो सम्पूर्ण इन्द्रियों के विषयरूप में प्रतीत हो रहे हैं, अर्थात जिनकी इन्द्रियाँ विषयों के भोग में ही रची पची रहती हैं-ऐसे लोगों को जिस प्रभु का मार्ग भी मिलना असंभव है, उन शरणागतरक्षक एवं अपारशक्तिशाली आपको बार बार नमस्कार है ॥२८॥
जिनकी अविद्या नामक शक्ति के कार्यरूप अहंकार से ढंके हुए अपने स्वरूप को यह जीव जान नही पाता, उन अपार महिमा वाले भगवान की मैं शरण मे आया हूँ ॥२९॥
श्री शुकदेव उवाच –
श्री शुकदेवजी ने कहा –
एवं गजेन्द्रमुपवर्णितनिर्विशेषं ब्रह्मादयो विविधलिंगभिदाभिमानाः । नैते यदोपससृपुर्निखिलात्मकत्वाततत्राखिलामर्मयो हरिराविरासीत ॥३०॥
इस प्रकार से भगवान के भेदरहित निराकार स्वरूप का वर्णन करने वाले उस गजराज के समीप ब्रह्मा आदि कोई भी देवता नही आये, क्योंकि वे भिन्न भिन्न प्रकार के विशिष्ट विग्रहों को ही अपना स्वरूप मानते हैं, तब सक्षात श्री हरि- जो सबके आत्मा होने के कारण सर्वदेवस्वरूप हैं-वहाँ प्रकट हो गये ॥३०॥
उपर्युक्त गजराज को उस प्रकार दुःखी देख कर तथा उसके द्वारा पढी हुई सुंदर स्तुति को सुन कर सुदर्शनचक्रधारी जगदाधार भगवान इच्छानुरूप वेग वाले गरुड जी की पीठ पर सवार होकर स्तवन करते हुए देवताओं के साथ तत्काल उस स्थान पर पहुँच गये जहाँ वह हाथी था ।
उत्क्षिप्य साम्बुजकरं गिरमाह कृच्छा न्नारायण्खिलगुरो भगवान नम्स्ते ॥३२॥
सरोवर के भीतर महाबली ग्राह के द्वारा पकडे जाकर दुःखी हुए उस हाथी ने आकाश में गरुड की पीठ पर सवार चक्र उठाये हुए भगवान श्री हरि को देखकर अपनी सूँड को -जिसमें उसने (पूजा के लिये) कमल का एक फूल ले रक्खा था-ऊपर उठाया और बडी ही कठिनाई से “सर्वपूज्य भगवान नारायण आपको प्रणाम है” यह वाक्य कहा ॥३२॥
उसे पीडित देख कर अजन्मा श्री हरि एकाएक गरुड को छोडकर नीचे झील पर उतर आये । वे दया से प्रेरित हो ग्राहसहित उस गजराज को तत्काल झील से बाहर निकाल लाये और देवताओं के देखते देखते चक्र से मुँह चीर कर उसके चंगुल से हाथी को उबार लिया ॥३३॥
अगर आपको संस्कृत में उच्चारण करने में दिक्कत हो तो आप इसका भावार्थ हिंदी में भी उच्चरित कर सकते हैं जो कि निम्नानुसार है
जो अमूर्त, अत्यन्त तेजस्वी, ध्यानी तथा दिव्यदृष्टि सम्पन्न हैं, उन पितरों को मैं सदा नमस्कार करता हूँ।
इन्द्र आदि देवताओं, दक्ष, मारीच, सप्तर्षियों तथा दूसरों के भी नायक हैं, सभी कामना की पूर्ति करने वाले उन पितरो को मैं प्रणाम करता हूँ।
मनु आदि राजर्षियों, मुनिश्वरों तथा सूर्य और चन्द्रमा के भी नायक समस्त पितरों को मैं जल और समुद्र में भी प्रणाम करता हूँ।
नक्षत्रों, ग्रहों, वायु, अग्नि, आकाश और द्युलोक तथा पृथ्वी के भी जो प्रमुख हैं, उन पितरों को मैं प्रणाम करता हूँ।
देवर्षियों के जन्मदाता, समस्त लोकों द्वारा वन्दित तथा सदा अक्षय फल के दाता, पितरों को मैं प्रणाम करता हूँ।
प्रजापति, कश्यप, सोम, वरूण तथा योगेश्वरों के रूप में स्थित पितरों को सदा प्रणाम करता हूँ।
सातों लोकों में स्थित सात पितृगणों को नमस्कार है। मैं योगदृष्टिसम्पन्न स्वयम्भू ब्रह्माजी को प्रणाम करता हूँ।
चन्द्रमा के आधार पर प्रतिष्ठित तथा योगमूर्तिधारी पितृगणों को मैं प्रणाम करता हूँ।
सम्पूर्ण जगत् के पिता सोम को नमस्कार करता हूँ।
अग्निस्वरूप अन्य पितरों को मैं प्रणाम करता हूँ, क्योंकि यह सम्पूर्ण जगत् अग्नि और सोममय है।
जो पितर तेज में स्थित हैं, जो ये चन्द्रमा, सूर्य और अग्नि के रूप में दृष्टिगोचर होते हैं तथा जो जगत्स्वरूप एवं ब्रह्मस्वरूप हैं, उन सम्पूर्ण योगी पितरो को मैं एकाग्रचित्त होकर प्रणाम करता हूँ।
समस्त पितरो को मैं बारम्बार नमस्कार करता हुआ उनकी कृपा का आकांक्षी हूं ।
वे स्वधाभोजी पितर मुझपर प्रसन्न हों। वह मुझ पर कृपालु हो और मेरे समस्त दोषों का प्रशमन करते हुए मुझे सर्व विध अनुकूलता प्रदान करें ....
विधि :-
एक थाली में भोजन तैयार करके रख ले तथा स्तोत्र का यथाशक्ति (1,3,7,9,11) पाठ करके किसी गाय को या किसी गरीब व्यक्ति को खिला दे ।
गुरुदेव स्वामी सुदर्शन नाथ जी : एक प्रचंड तंत्र साधक
साधना का क्षेत्र अत्यंत दुरुह तथा जटिल होता है. इसी लिये मार्गदर्शक के रूप में गुरु की अनिवार्यता स्वीकार की गई है. गुरु दीक्षा प्राप्त शिष्य को गुरु का प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष मार्गदर्शन प्राप्त होता रहता है. बाहरी आडंबर और वस्त्र की डिजाइन से गुरू की क्षमता का आभास करना गलत है. एक सफ़ेद धोती कुर्ता पहना हुआ सामान्य सा दिखने वाला व्यक्ति भी साधनाओं के क्षेत्र का महामानव हो सकता है यह गुरुदेव स्वामी सुदर्शन नाथ जी से मिलकर मैने अनुभव किया.
भैरव साधना से शरभेश्वर साधना तक....... कामकला काली से लेकर त्रिपुरसुंदरी तक ....... अघोर साधनाओं से लेकर तिब्बती साधना तक.... महाकाल से लेकर महासुदर्शन साधना तक सब कुछ अपने आप में समेटे हुए निखिल तत्व के जाज्वल्यमान पुंज स्वरूप... गुरुदेव स्वामी सुदर्शननाथ जी महाविद्या त्रिपुर सुंदरी के सिद्धहस्त साधक हैं.वर्तमान में बहुत कम महाविद्या सिद्ध साधक इतनी सहजता से साधकों के मार्गदर्शन के लिये उपलब्ध हैं.
आप चाहें तो उनसे संपर्क करके मार्गदर्शन ले सकते हैं :-
साधना सिद्धि विज्ञान जास्मीन - 429 न्यू मिनाल रेजीडेंसी जे. के. रोड , भोपाल [म.प्र.] दूरभाष : (0755) 4269368,4283681,4221116
यह एक छोटा गणेश भगवान का पूजन है जिसे आप लगभग 10 मिनट मे सम्पन्न कर सकते हैं
पहले गुरु स्मरण ,गणेश भैरव महालक्ष्मी स्मरण करे .. ॐ गुं गुरुभ्यो नमः ॐ श्री गणेशाय नमः
ॐ भ्रम भैरवाय नमः ॐ श्री महालक्ष्म्यै नमः
अब आप 4 बार आचमन करे दाए हाथ में पानी लेकर पिए गं आत्मतत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा गं विद्यातत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा गं शिव तत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा गं सर्व तत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा
अब आप घंटा नाद करे और उसे पुष्प अक्षत अर्पण करे घंटा देवताभ्यो नमः
अब आप जिस आसन पर बैठे है उस पर पुष्प अक्षत अर्पण करे आसन देवताभ्यो नमः
अब आप दीपपूजन करे उन्हें प्रणाम करे और पुष्प अक्षत अर्पण करे दीप देवताभ्यो नमः
अब आप कलश का पूजन करे ..उसमेगंध ,अक्षत ,पुष्प ,तुलसी,इत्र ,कपूर डाले ..उसे तिलक करे . कलश देवताभ्यो नमः
अब आप अपने आप को तिलक करे
फिर संक्षिप्त गुरु पुजन करे ॐ गुं गुरुभ्यो नम: । ॐ परम गुरुभ्यो नम: । ॐ पारमेष्ठी गुरुभ्यो नम: ।
उसके बाद गणपति का ध्यान करे वक्रतुण्ड महाकाय सूर्य कोटि समप्रभ निर्विघ्नं कुरु में देव सर्व कार्येशु सर्वदा
उनका आह्वान करें अर्थात बुलाएं श्री महागणपति आवाहयामि मम पूजन स्थाने रिद्धि सिद्धि सहित शुभ लाभ सहित स्थापयामि नमः
उनका स्वागत करें , फूल आदि चढ़ाएं त्वां चरणे गन्धाक्षत पुष्पं समर्पयामि ।
अब आप घंटा नाद करे और उसे पुष्प अक्षत अर्पण करे घंटा देवताभ्यो नमः
अब आप जिस आसन पर बैठे है उस पर पुष्प अक्षत अर्पण करे आसन देवताभ्यो नमः
अब आप दीपपूजन करे उन्हें प्रणाम करे और पुष्प अक्षत अर्पण करे दीप देवताभ्यो नमः
अब आप कलश का पूजन करे ..उसमेगंध ,अक्षत ,पुष्प ,तुलसी,इत्र ,कपूर डाले ..उसे तिलक करे .
कलश देवताभ्यो नमः
अब आप अपने आप को तिलक करे
उसके बाद हाथ मे जल अक्षत और पुष्प लेकर संकल्प करे कि आज के दिन मै अपनी समस्या निवारण हेतु ( जो समस्य हो उसे स्मरण करे ) या अपनी मनोकामना पूर्ती हेतु ( अपनी मनोकामना का स्मरण करे ) श्री गणपती का पूजन कर रहा हूं
श्री गणेश एकविंशति पत्र पूजा ------------------------- अगर आपके पास गणेश जी को अर्पण करने की 21 पत्री उपलब्ध है तो उसे अर्पण करे .. नही तो पुष्प अक्षत अर्पण करे .
‘कलौ चण्डी-विनायकौ’-कलियुग में ‘चण्डी’ और ‘गणेश’ की साधना ही श्रेयस्कर है।
मेरे गुरुदेव ने बताया था कि कलयुग में चंडी अर्थात भगवती जगदंबा की साधना और विनायक अर्थात गणेश भगवान की साधना या पूजा करने से ज्यादा लाभप्रद होता है ।
गणेश भगवान की साधना सरल है और उसमें बहुत ज्यादा विधि-विधान और जटिलता की आवश्यकता नहीं है इसीलिए सर्वसामान्य में गणेश भगवान की पूजन का बहुत ज्यादा प्रचलन है जो हम गणेशोत्सव के रूप में प्रतिवर्ष देखते हैं । गणेश भगवान के पूजन के लिए आप पंचोपचार व षोडशोपचार जैसे पूजन विधान का प्रयोग कर सकते हैं लेकिन उसमें संस्कृत श्लोकों का ज्यादा प्रयोग होता है जो पढ़ने में सामान्य जन को थोड़ी दिक्कत होती है । अष्टोत्तर शतनाम का मतलब होता है गणेश भगवान के 108 नाम के साथ उनका प्रणाम करते हुए पूजन करना जोकि सरल है और हर कोई कर सकता है ।
आप इन नाम का उच्चारण करने के बाद हर बार नम: बोलते समय अपनी श्रद्धा अनुसार फूल, चावल के दाने, अष्टगंध, दूर्वा , चंदन या जो आपकी श्रद्धा हो वह चढ़ा सकते हैं । इस प्रकार से बेहद सरलता से आप गणेश भगवान का पूजन संपन्न कर पाएंगे ।
अंत में हाथ जोड़कर प्रणाम करें और दोनों कान पकड़कर किसी भी प्रकार की त्रुटि के लिए क्षमा प्रार्थना करते हुए भगवान गणेश से अपने इच्छित मनोकामना को पूर्ण करने की याचिका करें ।