एक पत्थर की भी तकदीर बदल सकती है,
शर्त ये है कि सलीके से तराशा जाए....
रास्ते में पडा ! लोगों के पांवों की ठोकरें खाने वाला पत्थर ! जब
योग्य मूर्तिकार के हाथ लग जाता है, तो वह उसे तराशकर ,अपनी सर्जनात्मक क्षमता का उपयोग करते हुये, इस
योग्य बना देता है, कि वह मंदिर में प्रतिष्ठित होकर
करोडों की श्रद्धा का केद्र बन जाता है। करोडों सिर उसके सामने झुकते हैं।
रास्ते के पत्थर को इतना उच्च स्वरुप
प्रदान करने वाले मूर्तिकार के समान ही, एक गुरु अपने
शिष्य को सामान्य मानव से उठाकर महामानव के पद पर बिठा देता है।
चाणक्य ने अपने शिष्य चंद्रगुप्त को सडक से उठाकर
संपूर्ण भारतवर्ष का चक्रवर्ती सम्राट बना दिया।
विश्व मुक्केबाजी का महानतम हैवीवेट चैंपियन माइक
टायसन सुधार गृह से निकलकर अपराधी बन जाता अगर उसकी प्रतिभा को उसके गुरू ने ना
पहचाना होता।
यह एक अकाट्य सत्य है कि चाहे वह कल का
विश्वविजेता सिकंदर हो या आज का हमारा महानतम बल्लेबाज सचिन तेंदुलकर, वे अपनी क्षमताओं को पूर्णता प्रदान करने में अपने गुरु के मार्गदर्शन व
योगदान के अभाव में सफल नही हो सकते थे।
हमने प्राचीन काल से ही गुरु को सबसे
ज्यादा सम्माननीय तथा आवश्यक माना। भारत की गुरुकुल परंपरा में बालकों को योग्य
बनने के लिये आश्रम में रहकर विद्याद्ययन करना पडता था, जहां गुरु उनको सभी आवश्यक ग्रंथो का ज्ञान प्रदान करते हुए उन्हे समाज के
योग्य बनाते थे।
विश्व के प्राचीनतम विश्वविद्यालयों
नालंदा तथा तक्षशिला में भी उसी ज्ञानगंगा का प्रवाह हम देखते हैं। संपूर्ण विश्व
में शायद ही किसी अन्य देश में गुरु को उतना सम्मान प्राप्त हो जितना हमारे देश
में दिया जाता रहा है। यहां तक कहा गया किः-
गुरु गोविंद दोऊ खडे
काके लागूं पांय ।
बलिहारी गुरु आपकी
गोविंद दियो बताय ॥
अर्थात, यदि गुरु के साथ
स्वयं गोविंद अर्थात साक्षात भगवान भी सामने खडे हों, तो
भी गुरु ही प्रथम सम्मान का अधिकारी होता है, क्योंकि
उसीने तो यह क्षमता प्रदान की है कि मैं गोविंद को पहचानने के काबिल हो सका।
·
आध्यात्मिक जगत की ओर जाने के इच्छुक
प्रत्येक व्यक्ति का मार्ग गुरु और केवल गुरु से ही प्रारंभ होता है।
·
कुछ को गुरु आसानी से मिल जाते हैं, कुछ को काफी प्रयास के बाद मिलते हैं,और कुछ को नहीं
मिलते हैं।
·
साधनात्मक जगत, जिसमें योग, तंत्र, मंत्र
जैसी विद्याओं को रखा जाता है, में गुरु को अत्यंत ही
अनिवार्य माना जाता है।
·
वे लोग जो इन क्षेत्रों में विशेषज्ञता
प्राप्त करना चाहते हैं, उनको अनिवार्य रुप से योग्य गुरु के सानिध्य के लिये
प्रयास करना ही चाहिये।
·
ये क्षेत्र उचित मार्गदर्शन की अपेक्षा
रखते हैं।
गुरु का तात्पर्य किसी व्यक्ति के देह
या देहगत न्यूनताओं से नही बल्कि उसके अंतर्निहित ज्ञान से होता है, वह ज्ञान जो आपके लिये उपयुक्त हो,लाभप्रद हो। गुरु
गीता में कुछ श्लोकों में इसका विवेचन मिलता हैः-
अज्ञान तिमिरांधस्य
ज्ञानांजन शलाकया ।
चक्षुरुन्मीलितं येन
तस्मै श्री गुरुवे नमः ॥
अज्ञान के अंधकार में डूबे हुये
व्यक्ति को ज्ञान का प्रकाश देकर उसके नेत्रों को प्रकाश का अनुभव कराने वाले गुरु
को नमन ।
गुरु शब्द के अर्थ को बताया गया है कि :-
गुकारस्त्वंधकारश्च
रुकारस्तेज उच्यते।
अज्ञान तारकं ब्रह्म
गुरुरेव न संशयः॥
गुरु शब्द के पहले अक्षर ÷गु' का अर्थ है, अंधकार
जिसमें शिष्य डूबा हुआ है, और ÷रु' का अर्थ है, तेज
या प्रकाश जिसे गुरु शिष्य के हृदय में उत्पन्न कर इस अंधकार को हटाने में सहायक
होता है, और ऐसे ज्ञान को प्रदान करने वाला गुरु
साक्षात ब्रह्म के तुल्य होता है।
ज्ञान का दान ही गुरु की महत्ता है।
ऐसे ही ज्ञान की पूर्णता का प्रतीक हैं भगवान शिव। भगवान शिव को सभी विद्याओं का
जनक माना जाता है। वे तंत्र से लेकर मंत्र तक और योग से लेकर समाधि तक प्रत्येक
क्षेत्र के आदि हैं और अंत भी। वे संगीत के आदिसृजनकर्ता भी हैं, और नटराज के रुप में कलाकारों के आराध्य भी हैं। वे प्रत्येक विद्या के
ज्ञाता होने के कारण जगद्गुरु भी हैं। गुरु और शिव को आध्यात्मिक जगत में समान
माना गया है। कहा गया है कि :-
यः शिवः सः गुरु
प्रोक्तः। यः गुरु सः शिव स्मृतः॥
अर्थात गुरु और शिव दोनों ही अभेद हैं, और एक दूसरे के पर्याय हैं।जब गुरु ज्ञान की पूर्णता को प्राप्त कर लेता
है तो वह स्वयं ही शिव तुल्य हो जाता है, तब वह भगवान
आदि शंकराचार्य के समान उद्घोष करता है कि ÷
शिवो s हं, शंकरो s हं'।
ऐसे ही ज्ञान के भंडार माने जाने वाले
गुरुओं के प्रति अपना सम्मान व्यक्त करने का पर्व है, गुरु पूर्णिमा या व्यास पूर्णिमा । यह वो बिंदु है, जिसके वाद से सावन का महीना जो कि शिव का मास माना जाता है, प्रारंभ हो जाता है।
इसका प्रतीक रुप में अर्थ लें तो, जब गुरु अपने शिष्य को पूर्णता प्रदान कर देता है, तो वह आगे शिवत्व की प्राप्ति की दिशा में अग्रसर होने लगता है,और यह भाव उसमें जाग जाना ही मोक्ष या ब्रह्मत्व की स्थिति कही गयी है।
गुरु पूर्णिमा के अवसर पर हर शिष्य की
इच्छा होती है कि वह गुरु के सानिध्य में पहुँच सके ताकि वे उसे शिवत्व का मार्ग
बता सकें।
यदि किसी कारणवश आप गुरु को प्राप्त न
कर पाये हों तो आप दो तरीकों से साधना पथ पर आगे की ओर गतिमान हो सकते हैं।
· पहला यह कि आप अपने
आराध्य या इष्ट, देवता या देवी को गुरु मानकर आगे बढें
· और दूसरा आप भगवान
शिव को ही गुरु मानते हुये निम्नलिखित मंत्र का अनुष्ठान करें:-
॥ ॐ गुं गुरुभ्यो नमः ॥
1. इस मंत्र का सवा लाख
जाप करें।
2. साधनाकाल में सफेद
रंग के वस्त्रों को धारण करें।
3. अपने सामने अपने
गुरु के लिये भी सफेद रंग का एक आसन बिछाकररखें।
4. यदि हो सके तो इस
मंत्र का जाप प्रातः चार से छह बजे के बीच में करनाचाहिये।
5. साधना पूर्ण होने तक
आपके भाग्यानुकूल श्रेष्ठ गुरु हैं तो साधनात्मक रुप से आपको संकेत मिल जायेंगे।
6. गुरु पूर्णिमा के
अवसर पर प्रत्येक गृहस्थ को उपरोक्त मंत्र का कुछ समय तक जाप करना ही चाहिये, हमारे पूर्वज ऋषियों तथा गुरुओं के प्रति सम्मान प्रकट करने का यह एक
श्रेष्ठ तरीका है
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