10 अप्रैल 2022

मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री राम : राम रक्षा स्तोत्र

 


मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री राम की जन्मतिथि चैत्र शुक्ल नवमी राम नवमी के अवसर पर आप सभी को हार्दिक शुभकामनाएं .

भगवान राम सत्व गुण का सर्वोच्च स्वरूप है । उन्होंने अपने संपूर्ण जीवन में अत्यंत मर्यादित नियंत्रित और सात्विक जीवन जिया है ।

 

एक राजकुमार जिसका राज्याभिषेक होना है उसे अचानक पता चलता है कि उसकी सौतेली मा केकेई उसे वनवास में भेजने के रूप में पिता के द्वारा प्राप्त एक वचन को पूरा करना चाहती है ।

पिता धर्म संकट में है ।

अगर पत्नी को इनकार करते हैं तो रघुकुल की मर्यादा भंग होती है जो कहता है कि

"रघुकुल रीति सदा चली आई प्राण जाए पर वचन न जाई"

 

राम एक श्रेष्ठ बल्कि श्रेष्ठतम राजकुमार है ।

जिसे राज्य सौंपने का अर्थ संपूर्ण प्रजा का सर्वांगीण विकास और राज्य की हर तरफ से प्रगति है ।

 

इन दोनों चीजों के बीच में राजा दशरथ संशय की स्थिति में झूल रहे हैं ।

निर्णय नहीं कर पा रहे हैं कि क्या करूं ?

और ऐसी स्थिति में राम बेहद सहजता से वनवास को स्वीकार कर लेते हैं ।

 

सारी जनता इसके विरोध में है ।

वे चाहते हैं कि राम अयोध्या में रहे ।

सिंहासन पर बैठे ।

लेकिन वह तो मर्यादा पुरुषोत्तम है ......

कुल की मर्यादा और पिता के वचन का मान तो उन्हें रखना ही है।

इसलिए वे धनुष टांग कर वल्कल वस्त्र पहन कर निकल पड़ते हैं .....

एक ऐसी यात्रा पर जिसका कोई लक्ष्य नहीं है ।

क्या करना है ?

कहां जाना है ?

क्यों जाना है ?

इसका कोई उत्तर नहीं है   ....

लेकिन वे निकल पड़ते हैं ।

 

एक राजकुमारी सीता !

जिसे उसके पिता ने लाड प्यार से बड़े नाज से पाला है और एक ऐसे राजकुमार को सौंपा है जो एक बहुत बड़े राज्य का भावी सम्राट है, यह सोच कर कि मेरी पुत्री सर्व विध सुख और ऐश्वर्य का उपभोग करेगी ।

वह भी निकल पड़ती है.....

राजमहल का ऐश्वर्य छोड़कर......

पैदल.....

जंगल की पथरीली राहों पर चलने के लिए.......

 

कभी आप उस अवस्था को महसूस करके देखें ।

कभी आप अपने आप को राम और सीता की जगह रख कर देखें ।

उस समय आपकी क्या मनोदशा होती ?

और आप कैसा महसूस कर रहे होते ?

इस बात की कल्पना मात्र से आपकी आत्मा तक कांप जाएगी ।

 

लेकिन भगवान राम ने इस स्थिति को भी पूरी सहजता से स्वीकार किया ।

जो जीवन में आने वाली स्थितियों को सहजता से स्वीकार कर लेते हैं वह जीवन में ऊंचाइयों को भी प्राप्त करते हैं और सफलता को भी प्राप्त करते हैं ।

 

यदि श्री राम अयोध्या में ही रह जाते..,

तो ......

संभवत वह एक कुशल सम्राट के रूप में जाने जाते ।

लेकिन वह राजमहल से निकले .....

कठोर तपस्या के मार्ग से होकर गुजरे......

अनेक कष्टों का सामना किया ........

अनेक राक्षसों का वध किया ......

पत्नी का वियोग सहा .....

रावण जैसे दुर्धर्ष और शक्तिशाली योद्धा का वानर सेना के साथ सामना किया ।

 

अगर आप प्रतीकात्मक रूप से देखें तो इसका यह भी अर्थ निकलता है कि..,,

सेना चाहे वानरों की ही क्यों ना हो .....

अगर उसका मार्गदर्शन और नेतृत्व श्री राम जैसा व्यक्तित्व कर रहा हो तो वह भी रावण जैसे विराट व्यक्तित्व का संघार करने में सक्षम हो जाती है ।

 

रावण कोई सामान्य व्यक्ति नहीं था । रावण भगवान शिव का प्रिय शिष्य था । यही नहीं वह भगवती जगदंबा का भी शिष्य था । अपनी साधना और तपोबल के माध्यम से उसने ऐसी-ऐसी सिद्धियां प्राप्त कर रखी थी जिनके माध्यम से सारे ग्रह उसके नियंत्रण में रहते थे एक तरह से उसके बंदी बने हुए थे ।

उस की लंका सोने की थी अर्थात ऐश्वर्या और समृद्धि के मामले में भगवान राम जो कि वनवासी थे उसके सामने बिल्कुल नगण्य से थे ।

 

वह पुष्पक विमान में चलता था और भगवान राम पैदल चलते थे । उसके बावजूद भगवान राम अपने दृढ़ निश्चय की वजह से और अपने प्रबल पौरुष और पराक्रम की वजह से उस दुरूह और कठिन शत्रु को भी पराजित करके इस बात को सिद्ध कर देते हैं कि अगर इच्छाशक्ति की प्रबलता हो तो उपलब्ध संसाधनों से भी असंभव लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है ।

 

राजकुमार राम की राजमहल से वन तक की यात्रा ने सही अर्थों में उन्हें राजकुमार राम से भगवान राम बना दिया ........

संपूर्ण जगत में वंदनीय बना दिया.......

यह पुरुष से महापुरुष बनने की यात्रा का एक जाजवल्यमान प्रमाण है।

ऐसे भगवान श्री राम के चरणों में साष्टांग दंडवत प्रणाम करता हुआ उनका एक बहु प्रचलित स्तोत्र राम रक्षा स्तोत्र प्रस्तुत है।

 

अधिकांश राम भक्त स्तोत्र के बारे में जानते हैं, भगवान राम ने भी अनेक प्रकार की साधनाएं की थी। उनमें से एक साधना उन्होंने समुद्र तट पर भगवान शिव के सायुज्य को प्राप्त करने के लिए की थी और वह स्थान आज रामेश्वरम के नाम से जाना जाता है ।

 

यह इस बात का प्रमाण है कि उस काल से ही साधनाएं होती रही हैं । साधनाओ के माध्यम से इष्ट की कृपा प्राप्त करने का विधान मौजूद रहा है ।

तंत्र  साधनाओ मैं कई प्रकार के स्तोत्र का प्रयोग किया जाता है जिनमें सहस्त्रनाम स्तोत्र अर्थात 1000 नामों का उच्चारण सबसे ज्यादा प्रचलित है । इसके अलावा कवच का भी प्रयोग होता है , कवच का अर्थ होता है कोई ऐसी चीज जो आपकी रक्षा करें । हम सामान्यतः अपने शरीर की रक्षा करना चाहते हैं ऐसी स्थिति में इन रक्षा कवचो में शरीर के विभिन्न अंगों की रक्षा करने के लिए हम अपने इष्ट से प्रार्थना करते हैं राम रक्षा स्तोत्र भी एक वैसा ही कवच है जिसके माध्यम से हम भगवान श्रीराम से अपनी रक्षा करने की प्रार्थना करते हैं आइए इसको देखें ।

 

॥ श्रीरामरक्षास्तोत्रम्‌ ॥

 

पहले भगवान गणेश को प्रणाम करें

॥ श्री गणेशाय नम: ॥

 

आपके कोई गुरु है तो उनको प्रणाम करें । अगर उन्होंने कोई मंत्र दिया है तो उस मंत्र का जाप करें । यदि नहीं दिया है या गुरु नहीं है तो आप निम्नलिखित मंत्र का भी एक बार जाप कर सकते हैं और सभी गुरुओं को प्रणाम कर सकते हैं ।

 

॥ ओम गुरु मंडलाय नमः ॥

 

अपने दाहिने हाथ पर एक चम्मच पानी लेकर नीचे लिखे हुए विनियोग का उच्चारण करेंगे । पूरा पढ़ लेने के बाद उस जल को भगवान राम के चरणों में छोड़ देंगे ।

 

अस्य श्रीरामरक्षास्तोत्रमन्त्रस्य ।

बुधकौशिक ऋषि: ।

श्रीसीतारामचंद्रोदेवता ।

अनुष्टुप्‌ छन्द: । सीता शक्ति: ।

श्रीमद्‌हनुमान्‌ कीलकम्‌ ।

श्रीसीतारामचंद्रप्रीत्यर्थे जपे विनियोग: ॥

 

अर्थ : इस राम रक्षा स्तोत्र मंत्रके रचयिता बुधकौशिक ऋषि हैं, सीता और रामचंद्र देवता हैं, अनुष्टुप छंद हैं, सीता शक्ति हैं, हनुमानजी कीलक है तथा श्रीरामचंद्रजीकी प्रसन्नताके लिए राम रक्षा स्तोत्रके जपमें विनियोग किया जाता है ।

 

इसके पश्चात भगवान श्री राम के सुंदर स्वरूप का ध्यान करेंगे। जिस भगवान की हम पूजा करने वाले हैं उसके स्वरूप को जिस प्रकार से हम देखना चाहते हैं उस प्रकार की कल्पना करते हुए अपने मानस पटल पर उस चित्र को देखने का प्रयास करें ऐसा महसूस करें कि आपके ध्यान में भगवान का वैसा स्वरूप आपको दिखाई दे रहा है ।

 

॥ अथ ध्यानम्‌ ॥

ध्यायेदाजानुबाहुं धृतशरधनुषं बद्दद्पद्‌मासनस्थं ।

पीतं वासोवसानं नवकमलदलस्पर्धिनेत्रं प्रसन्नम्‌ ॥

वामाङ्‌कारूढसीता मुखकमलमिलल्लोचनं नीरदाभं ।

नानालङ्‌कारदीप्तं दधतमुरुजटामण्डनं रामचंद्रम्‌ ॥

अर्थ : जो धनुष-बाण धारण किए हुए हैं,बद्ध पद्मासन की मुद्रामें विराजमान हैं और पीतांबर पहने हुए हैं, जिनके आलोकित नेत्र नए कमल दल से समान स्पर्धा करते हैं,अर्थात कमल के समान सुंदर है और जो बायें ओर स्थित सीताजीके मुख कमल से मिले हुए हैं- उन आजानु बाहु,(आजानु बाहु का तात्पर्य होता है जिसके हाथ घुटनों तक पहुंचते हो, जितने अद्भुत महामानव होते हैं उनके हाथों की लंबाई ज्यादा होती है और वह लगभग उनके घुटनों तक पहुंचते हुए प्रतीत होते हैं ) मेघ अर्थात बादलों जैसे श्याम रंग के , विभिन्न अलंकारों से विभूषित तथा जटाधारी श्रीरामका ध्यान करता हूँ ।

॥ इति ध्यानम्‌ ॥

चरितं रघुनाथस्य शतकोटिप्रविस्तरम्‌ ।

एकैकमक्षरं पुंसां महापातकनाशनम्‌ ॥१॥

अर्थ : श्री रघुनाथजीका चरित्र सौ कोटि विस्तारवाला हैं । उसका एक-एक अक्षर महापातकों (पापों ) को नष्ट करनेवाला है ।

 

ध्यात्वा नीलोत्पलश्यामं रामं राजीवलोचनम्‌ ।

जानकीलक्ष्मणॊपेतं जटामुकुटमण्डितम्‌ ॥२॥

 

अर्थ : नीले कमल के जैसे श्याम वर्ण वाले, कमल जैसे सुंदर नेत्र वाले , जटाओं के मुकुट से सुशोभित, जानकी तथा लक्ष्मण सहित ऐसे भगवान् श्रीरामका स्मरण का मैं ध्यान करता हूँ ।

 

सासितूणधनुर्बाणपाणिं नक्तं चरान्तकम्‌ ।

स्वलीलया जगत्त्रातुमाविर्भूतमजं विभुम्‌ ॥३॥

 

अर्थ : जो अजन्मा एवं सर्वव्यापक, हाथोंमें खड्ग, तुणीर, धनुष-बाण धारण किए राक्षसोंके संहार तथा अपनी लीलाओंसे जगत रक्षा हेतु अवतीर्ण श्रीरामका स्मरण करता हूँ ।

 

यहाँ से रक्षा पाठ प्रारम्भ होता है :-

 

रामरक्षां पठॆत्प्राज्ञ: पापघ्नीं सर्वकामदाम्‌ ।

शिरो मे राघव: पातु भालं दशरथात्मज: ॥४॥

 

अर्थ : मैं सर्वकामप्रद और पापोंको नष्ट करनेवाले राम रक्षा स्तोत्रका पाठ करता हूं । राघव मेरे सिर की और दशरथ के पुत्र मेरे ललाटकी रक्षा करें ।

 

कौसल्येयो दृशौ पातु विश्वामित्रप्रिय: श्रुती ।

घ्राणं पातु मखत्राता मुखं सौमित्रिवत्सल: ॥५॥

 

अर्थ : कौशल्या नंदन मेरे नेत्रोंकी, विश्वामित्र के प्रिय मेरे कानों की, यज्ञ रक्षक मेरे नाक की और सुमित्रा के वत्सल मेरे मुखकी रक्षा करें ।

 

जिव्हां विद्यानिधि: पातु कण्ठं भरतवंदित: ।

स्कन्धौ दिव्यायुध: पातु भुजौ भग्नेशकार्मुक: ॥६॥

 

अर्थ : विद्यानिधि मेरी जिह्वाकी रक्षा करें, कंठकी भरत-वंदित, कंधोंकी दिव्यायुध और भुजाओं की महादेवजीका धनुष तोडनेवाले भगवान् श्रीराम रक्षा करें ।

 

करौ सीतपति: पातु हृदयं जामदग्न्यजित्‌ ।

मध्यं पातु खरध्वंसी नाभिं जाम्बवदाश्रय: ॥७॥

 

अर्थ : मेरे हाथोंकी सीता पति श्रीराम रक्षा करें, हृदय की जमदग्नि ऋषि के पुत्र को (परशुराम) जीतनेवाले, मध्य भाग की खर नामक राक्षस के वधकर्ता और नाभि की जांबवान के आश्रयदाता रक्षा करें ।

 

सुग्रीवेश: कटी पातु सक्थिनी हनुमत्प्रभु: ।

ऊरू रघुत्तम: पातु रक्ष:कुलविनाशकृत्‌ ॥८॥

अर्थ : मेरे कमर की सुग्रीव के स्वामी, हडियों की हनुमान के प्रभु और रानों की राक्षस कुल का विनाश करने वाले रघुकुल के श्रेष्ठ भगवान राम रक्षा करें ।

 

जानुनी सेतुकृत्पातु जङ्‌घे दशमुखान्तक: ।

पादौ बिभीषणश्रीद: पातु रामोSखिलं वपु: ॥९॥

 

अर्थ : मेरे जानुओं की सेतु कृत (अर्थात सेतु का निर्माण करके लंका तक पहुंच जाने वाले), जंघाओ की दशानन वधकर्ता, चरणों की विभीषण को ऐश्वर्य प्रदान करनेवाले और सम्पूर्ण शरीर की श्रीराम रक्षा करें ।

 

एतां रामबलोपेतां रक्षां य: सुकृती पठॆत्‌ ।

स चिरायु: सुखी पुत्री विजयी विनयी भवेत्‌ ॥१०॥

 

अर्थ : शुभ कार्य करनेवाला जो भक्त भक्ति एवं श्रद्धाके साथ राम बल से अर्थात उनकी भक्ति और श्रद्धा से संयुक्त होकर इस स्तोत्र का पाठ करता हैं, वह दीर्घायु, सुखी, पुत्रवान, विजयी और विनयशील हो जाता हैं ।

 

पातालभूतलव्योम चारिणश्छद्‌मचारिण: ।

न द्र्ष्टुमपि शक्तास्ते रक्षितं रामनामभि: ॥११॥

 

अर्थ : जो जीव पाताल, पृथ्वी और आकाश में विचरते रहते हैं अथवा छद्दम वेशमें घूमते रहते हैं , वे राम नामों से सुरक्षित मनुष्यको देख भी नहीं पाते । तात्पर्य यह कि जो भगवान राम का नाम लेता रहता है उसे राक्षस गण भी परेशान नहीं कर पाते हैं ।

 

रामेति रामभद्रेति रामचंद्रेति वा स्मरन्‌ ।

नरो न लिप्यते पापै भुक्तिं मुक्तिं च विन्दति ॥१२॥

अर्थ : राम, रामभद्र तथा रामचंद्र आदि नामोंका स्मरण करनेवाला रामभक्त पापों से लिप्त नहीं होता, इतना ही नहीं, वह अवश्य ही भोग और मोक्ष दोनोंको प्राप्त करता है ।

 

जगज्जेत्रैकमन्त्रेण रामनाम्नाभिरक्षितम्‌ ।

य: कण्ठे धारयेत्तस्य करस्था: सर्वसिद्द्दय: ॥१३॥

 

अर्थ : जो संसार पर विजय करनेवाले मंत्र राम-नाम से सुरक्षित इस स्तोत्र को कंठस्थ कर लेता हैं, उसे सम्पूर्ण सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं । अर्थात उसके सभी प्रकार के कार्य सफल होने लगते हैं ।

 

वज्रपंजरनामेदं यो रामकवचं स्मरेत्‌ ।

अव्याहताज्ञ: सर्वत्र लभते जयमंगलम्‌ ॥१४॥

अर्थ : जो मनुष्य वज्रपंजर नामक इस राम कवच का स्मरण करता हैं, उसकी आज्ञा का कहीं भी उल्लंघन नहीं होता अर्थात उसकी बात को लोग स्वीकार करने लगते हैं तथा उसे सदैव विजय और मंगलकी ही प्राप्ति होती हैं ।

 

आदिष्टवान्यथा स्वप्ने रामरक्षामिमां हर: ।

तथा लिखितवान्‌ प्रात: प्रबुद्धो बुधकौशिक: ॥१५॥

 

अर्थ : भगवान् शंकरने स्वप्नमें इस रामरक्षा स्तोत्रका आदेश बुध कौशिक ऋषिको दिया था, उन्होंने प्रातः काल जागनेपर उसे वैसा ही लिख दिया |

 

आराम: कल्पवृक्षाणां विराम: सकलापदाम्‌ ।

अभिरामस्त्रिलोकानां राम: श्रीमान्‌ स न: प्रभु: ॥१६॥

 

अर्थ : जो कल्प वृक्षों के बागके समान विश्राम देने वाले हैं, जो समस्त विपत्तियोंको दूर करनेवाले हैं और जो तीनो लोकों में सुंदर हैं, शोभनीय है वही श्री राम हमारे प्रभु हैं ।

 

तरुणौ रूपसंपन्नौ सुकुमारौ महाबलौ ।

पुण्डरीकविशालाक्षौ चीरकृष्णाजिनाम्बरौ ॥१७॥

अर्थ : जो युवा,सुन्दर, सुकुमार,महाबली और कमलके (पुण्डरीक) समान विशाल नेत्रों वाले हैं, मुनियों के समान वस्त्र एवं काले मृग का चर्म धारण करते हैं ।

 

फलमूलशिनौ दान्तौ तापसौ ब्रह्मचारिणौ ।

पुत्रौ दशरथस्यैतौ भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ ॥१८॥

 

अर्थ : जो फल और कंदका आहार ग्रहण करते हैं, जो संयमी , तपस्वी एवं ब्रह्रमचारी हैं , वे दशरथके पुत्र राम और लक्ष्मण दोनों भाई हमारी रक्षा करें ।

 

शरण्यौ सर्वसत्वानां श्रेष्ठौ सर्वधनुष्मताम्‌ ।

रक्ष:कुलनिहन्तारौ त्रायेतां नो रघुत्तमौ ॥१९॥

 

अर्थ : समस्त प्रकार की सात्विक शक्तियों को शरण देने वाले, समस्त प्राणियों के शरणदाता, सभी धनुर्धारियों में श्रेष्ठ और राक्षसों के कुलों का समूल नाश करने में समर्थ मर्यादा पुरूषोतम हमारा रक्षण करें ।

 

आत्तसज्जधनुषा विषुस्पृशा वक्षया शुगनिषङ्‌ग सङि‌गनौ ।

रक्षणाय मम रामलक्ष्मणा वग्रत: पथि सदैव गच्छताम्‌ ॥२०॥

 

अर्थ : संघान किए धनुष धारण किए, बाण का स्पर्श कर रहे, अर्थात किसी भी विपत्ति का सामना करने के लिए उद्यत , अक्षय बाणो से युक्त तुणीर लिए हुए राम और लक्ष्मण मेरी रक्षा करने के लिए मेरे आगे चलें ।

 

संनद्ध: कवची खड्‌गी चापबाणधरो युवा ।

गच्छन्‌मनोरथोSस्माकं राम: पातु सलक्ष्मण: ॥२१॥

 

अर्थ : हमेशा तत्पर, कवचधारी, हाथ में खडग, धनुष-बाण तथा युवावस्था वाले भगवान् राम लक्ष्मण सहित हमारे आगे-आगे चलते हुए हमारी रक्षा करें ।

 

रामो दाशरथि: शूरो लक्ष्मणानुचरो बली ।

काकुत्स्थ: पुरुष: पूर्ण: कौसल्येयो रघुत्तम: ॥२२॥

वेदान्तवेद्यो यज्ञेश: पुराणपुरुषोत्तम: ।

जानकीवल्लभ: श्रीमानप्रमेय पराक्रम: ॥२३॥

इत्येतानि जपेन्नित्यं मद्‌भक्त: श्रद्धयान्वित: ।

अश्वमेधाधिकं पुण्यं संप्राप्नोति न संशय: ॥२४॥

 

अर्थ : भगवानका कथन है कि श्री राम, दाशरथी, शूर, लक्ष्मनाचुर, बली, काकुत्स्थ , पुरुष, पूर्ण, कौसल्येय, रघुत्तम, वेदान्त्वेद्य, यज्ञेश, पुराण पुरुषोतम , जानकी वल्लभ, श्रीमान और अप्रमेय पराक्रम आदि नामों का नित्य श्रद्धापूर्वक जप करने वाले को निश्चित रूपसे अश्वमेध यज्ञसे भी अधिक फल प्राप्त होता हैं ।

 

रामं दूर्वादल श्यामं पद्‌माक्षं पीतवाससम्‌ ।

स्तुवन्ति नामभिर्दिव्यैर्न ते संसारिणो नर: ॥२५॥

अर्थ : दूर्वादलके समान श्याम वर्ण, कमल-नयन एवं पीतांबरधारी श्रीरामकी उपरोक्त दिव्य नामोंसे स्तुति करने वाला संसारचक्र या मायाजाल में नहीं पडता ।

 

रामं लक्ष्मणं पूर्वजं रघुवरं सीतापतिं सुंदरम्‌ ।

काकुत्स्थं करुणार्णवं गुणनिधिं विप्रप्रियं धार्मिकम्‌

राजेन्द्रं सत्यसंधं दशरथनयं श्यामलं शान्तमूर्तिम्‌ ।

वन्दे लोकभिरामं रघुकुलतिलकं राघवं रावणारिम्‌ ॥२६॥

अर्थ : लक्ष्मण जी के बड़े भाई , सीताजी के पति, सुंदर, काकुत्स्थ, कुल-नंदन, करुणा के सागर , गुण-निधान , विप्र प्रिय , धार्मिक, राजराजेश्वर, सत्यनिष्ठ, दशरथके पुत्र, श्याम और शांत मूर्ति, सम्पूर्ण लोकोंमें सुन्दर, रघुकुल के तिलक अर्थात गौरव , राघव, रावण को नष्ट करने वाले भगवान् राम की मैं वंदना करता हूं।

 

रामाय रामभद्राय रामचंद्राय वेधसे ।

रघुनाथाय नाथाय सीताया: पतये नम: ॥२७॥

अर्थ : राम, रामभद्र, रामचंद्र, विधात स्वरूप , रघुनाथ, नाथ या स्वामी एवं सीताजीके पति की मैं वंदना करता हूं।

 

श्रीराम राम रघुनन्दन राम राम ।

श्रीराम राम भरताग्रज राम राम ।

श्रीराम राम रणकर्कश राम राम ।

श्रीराम राम शरणं भव राम राम ॥२८॥

 

अर्थ : हे रघुनन्दन श्रीराम ! हे भरतके अग्रज भगवान् राम! हे रणधीर, मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम ! आप मुझे शरण दीजिए ।

श्रीरामचन्द्रचरणौ मनसा स्मरामि ।

श्रीरामचन्द्रचरणौ वचसा गृणामि ।

श्रीरामचन्द्रचरणौ शिरसा नमामि ।

श्रीरामचन्द्रचरणौ शरणं प्रपद्ये ॥२९॥

अर्थ : मैं एकाग्र मनसे श्रीरामचंद्रजीके चरणोंका स्मरण और वाणीसे गुणगान करता हूं, वाणी द्धारा और पूरी श्रद्धाके साथ भगवान् रामचन्द्रके चरणोंको प्रणाम करता हुआ मैं उनके चरणोंकी शरण लेता हूं |

 

माता रामो मत्पिता रामचंन्द्र: ।

स्वामी रामो मत्सखा रामचंद्र: ।

सर्वस्वं मे रामचन्द्रो दयालु ।

नान्यं जाने नैव जाने न जाने ॥३०॥

 

अर्थ : श्रीराम मेरे माता, मेरे पिता , मेरे स्वामी और मेरे सखा हैं ।इस प्रकार दयालु श्रीराम मेरे सर्वस्व हैं, उनके सिवा मैं इस संसार में किसी दुसरेको नहीं जानता ।

 

दक्षिणे लक्ष्मणो यस्य वामे तु जनकात्मजा ।

पुरतो मारुतिर्यस्य तं वन्दे रघुनंदनम्‌ ॥३१॥

अर्थ : जिनके दाईं और लक्ष्मणजी, बाईं और जानकीजी और सामने हनुमान जी विराजमान हैं, मैं उन्ही रघुनाथजीकी वंदना करता हूं ।

 

लोकाभिरामं रनरङ्‌गधीरं राजीवनेत्रं रघुवंशनाथम्‌ ।

कारुण्यरूपं करुणाकरंतं श्रीरामचंद्रं शरणं प्रपद्ये ॥३२॥

अर्थ : मैं सम्पूर्ण लोकोंमें सुन्दर तथा रणक्रीडामें धीर अर्थात डटे रहने वाले , कमल जैसे नेत्र वाले , रघुवंश नायक, करुणाकी मूर्ति और सभी प्राणियों पर करुणा करने वाले करुणाके भण्डार रुपी श्रीरामकी शरणमें हूं।

 

मनोजवं मारुततुल्यवेगं जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठम्‌ ।

वातात्मजं वानरयूथमुख्यं श्रीरामदूतं शरणं प्रपद्ये ॥३३॥

अर्थ : जिनकी गति मनके समान और वेग वायुके समान (अत्यंत तेज) है, जो परम जितेन्द्रिय एवं बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ हैं, मैं उन पवन-नंदन वानारग्रगण्य श्रीराम दूतकी शरण लेता हूं ।

 

कूजन्तं रामरामेति मधुरं मधुराक्षरम्‌ ।

आरुह्य कविताशाखां वन्दे वाल्मीकिकोकिलम्‌ ॥३४॥

अर्थ : मैं कवितामयी डाली पर बैठकर, मधुर अक्षरोंवाले राम-रामके मधुर नाम को कूजते हुए वाल्मीकि रुपी कोयलकी वंदना करता हूं ।

 

आपदामपहर्तारं दातारं सर्वसंपदाम्‌ ।

लोकाभिरामं श्रीरामं भूयो भूयो नमाम्यहम्‌ ॥३५॥

अर्थ : मैं इस संसारके प्रिय एवं सुन्दर , उन भगवान् रामको बार-बार नमन करता हूं, जो सभी आपदाओंको दूर करनेवाले तथा सुख-सम्पति प्रदान करनेवाले हैं ।

 

भर्जनं भवबीजानामर्जनं सुखसंपदाम्‌ ।

तर्जनं यमदूतानां रामरामेति गर्जनम्‌ ॥३६॥

 

अर्थ : राम-रामका जप करनेसे मनुष्यके सभी कष्ट समाप्त हो जाते हैं । वह समस्त सुख-सम्पति तथा ऐश्वर्य प्राप्त कर लेता हैं । राम-राम की गर्जना से यमदूत सदा भयभीत रहते हैं ।

 

रामो राजमणि: सदा विजयते रामं रमेशं भजे ।

रामेणाभिहता निशाचरचमू रामाय तस्मै नम: ।

रामान्नास्ति परायणं परतरं रामस्य दासोSस्म्यहम्‌ ।

रामे चित्तलय: सदा भवतु मे भो राम मामुद्धर ॥३७॥

 

अर्थ : राजाओं में मणि के समान श्रेष्ठ श्रीराम सदा विजयको प्राप्त करते हैं । सम्पूर्ण राक्षस सेना का नाश करनेवाले श्रीरामको मैं नमस्कार करता हूं । श्री राम के समान अन्य कोई आश्रयदाता नहीं । मैं उन शरणागत वत्सलका दास हूं। मैं सदैव श्रीराममें ही लीन रहूं । हे श्रीराम! आप मेरा (इस संसार सागर से) उद्धार करें ।

 

राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे ।

सहस्रनाम तत्तुल्यं रामनाम वरानने ॥३८॥

 

अर्थ : (शिव पार्वती से बोले –) हे सुमुखी ! राम- नाम सहस्त्रनाम के समान हैं । वह मनोरम है । मैं सदा राम का स्तवन करता हूं और राम-नाम में ही रमण करता हूं ।

इति श्रीबुधकौशिकविरचितं श्रीरामरक्षास्तोत्रं संपूर्णम्‌ ॥

इस प्रकार बुधकौशिकद्वारा रचित श्रीराम रक्षा स्तोत्र सम्पूर्ण होता है ।

॥ श्री सीतारामचंद्रार्पणमस्तु ॥

 

एक बार गुरु का ध्यान करेंगे गुरु मंत्र का एक बार जाप करेंगे और किसी भी प्रकार की गलती के लिए दोनों कान पकड़कर क्षमा प्रार्थना कर लेंगे ।

अंत में भगवान शिव को प्रणाम करते हुए कहेंगे ।

 

शिव शासनतः !

शिव शासनतः !!

शिव शासनतः !!!

 

 

 

 

 

©©©©©

 प्रिय पाठक और पाठिकाओं

सस्नेह नमस्कार,

आप सभी के स्नेह तथा आशीर्वाद के लिए धन्यवाद ।

  

मंत्र के उच्चारण को स्पष्ट करने के लिए

मंत्र उच्चारण Mantra Pronunciation


के नाम से

पॉडकास्ट

https://open.spotify.com/show/00vXvHwYrtTbjnjSzyOt3V

और यूट्यूब चेनल

https://www.youtube.com/channel/UCpQmfDpTFYokh8smhreq3Sg

 भी बनाया है जिसमे सुनकर आप अपना मंत्र उच्चारण सुधार सकते हैं ।

 आपका

 अनिल शेखर अमस

 

 

 

®®®®®

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

आपके सुझावों के लिये धन्यवाद..
आपके द्वारा दी गई टिप्पणियों से मुझे इसे और बेहतर बनाने मे सहायता मिलेगी....
यदि आप जवाब चाहते हैं तो कृपया मेल कर दें . अपने अल्पज्ञान से संभव जवाब देने का प्रयास करूँगा.मेरा मेल है :-
dr.anilshekhar@gmail.com