एक प्रयास सनातन धर्म[Sanatan Dharma] के महासमुद्र मे गोता लगाने का.....कुछ रहस्यमयी शक्तियों [shakti] से साक्षात्कार करने का.....गुरुदेव Dr. Narayan Dutt Shrimali Ji [ Nikhileswaranand Ji] की कृपा से प्राप्त Mantra Tantra Yantra विद्याओं को समझने का......
Kali, Sri Yantra, Laxmi,Shiv,Kundalini, Kamkala Kali, Tripur Sundari, Maha Tara ,Tantra Sar Samuchhay , Mantra Maharnav, Mahakal Samhita, Devi,Devata,Yakshini,Apsara,Tantra, Shabar Mantra, जैसी गूढ़ विद्याओ को सीखने का....
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अगर आपको संस्कृत में उच्चारण करने में दिक्कत हो तो आप इसका भावार्थ हिंदी में भी उच्चरित कर सकते हैं जो कि निम्नानुसार है
जो अमूर्त, अत्यन्त तेजस्वी, ध्यानी तथा दिव्यदृष्टि सम्पन्न हैं, उन पितरों को मैं सदा नमस्कार करता हूँ।
इन्द्र आदि देवताओं, दक्ष, मारीच, सप्तर्षियों तथा दूसरों के भी नायक हैं, सभी कामना की पूर्ति करने वाले उन पितरो को मैं प्रणाम करता हूँ।
मनु आदि राजर्षियों, मुनिश्वरों तथा सूर्य और चन्द्रमा के भी नायक समस्त पितरों को मैं जल और समुद्र में भी प्रणाम करता हूँ।
नक्षत्रों, ग्रहों, वायु, अग्नि, आकाश और द्युलोक तथा पृथ्वी के भी जो प्रमुख हैं, उन पितरों को मैं प्रणाम करता हूँ।
देवर्षियों के जन्मदाता, समस्त लोकों द्वारा वन्दित तथा सदा अक्षय फल के दाता, पितरों को मैं प्रणाम करता हूँ।
प्रजापति, कश्यप, सोम, वरूण तथा योगेश्वरों के रूप में स्थित पितरों को सदा प्रणाम करता हूँ।
सातों लोकों में स्थित सात पितृगणों को नमस्कार है। मैं योगदृष्टिसम्पन्न स्वयम्भू ब्रह्माजी को प्रणाम करता हूँ।
चन्द्रमा के आधार पर प्रतिष्ठित तथा योगमूर्तिधारी पितृगणों को मैं प्रणाम करता हूँ।
सम्पूर्ण जगत् के पिता सोम को नमस्कार करता हूँ।
अग्निस्वरूप अन्य पितरों को मैं प्रणाम करता हूँ, क्योंकि यह सम्पूर्ण जगत् अग्नि और सोममय है।
जो पितर तेज में स्थित हैं, जो ये चन्द्रमा, सूर्य और अग्नि के रूप में दृष्टिगोचर होते हैं तथा जो जगत्स्वरूप एवं ब्रह्मस्वरूप हैं, उन सम्पूर्ण योगी पितरो को मैं एकाग्रचित्त होकर प्रणाम करता हूँ।
समस्त पितरो को मैं बारम्बार नमस्कार करता हुआ उनकी कृपा का आकांक्षी हूं ।
वे स्वधाभोजी पितर मुझपर प्रसन्न हों। वह मुझ पर कृपालु हो और मेरे समस्त दोषों का प्रशमन करते हुए मुझे सर्व विध अनुकूलता प्रदान करें ....
विधि :-
एक थाली में भोजन तैयार करके रख ले तथा स्तोत्र का यथाशक्ति (1,3,7,9,11) पाठ करके किसी गाय को या किसी गरीब व्यक्ति को खिला दे ।
क्षमतानुसार 1,3,5,7,9,11,21,51 या 108 बार सहस्राक्षरी स्तोत्र मंत्र का पाठ करेंः-
(हाथ में जल लेकर)विनियोगः-
ऊँ अस्य श्री सर्व महाविद्या महारात्रि गोपनीय मंत्र रहस्याति रहस्यमयी पराशक्ति श्री मदाद्या भगवती सिद्ध लक्ष्मी सहस्राक्षरी सहस्र रूपिणि महाविद्याया श्री इंद्र ऋषिं गायत्रयादि नाना छंदांसि नवकोटि शक्तिरूपा श्री मदाद्या भगवती सिद्ध लक्ष्मी देवता श्री मदाद्या भगवती सिद्ध लक्ष्मी प्रसादादखिलेष्टार्थ (यहाँ अपनी मनोकामना बोल देंगे ) जपे पाठे विनियोगः । (जल जमीन पर छोड़ दें )
अपने हाथ मे एक पुष्प रखें ।
एक पाठ पूरा हो जाने पर उसे देवी के चरणों मे चढ़ा दें और उनकी कृपा प्राप्ति की प्रार्थना करें ।.
स्तोत्र मंत्र :-
ऊँ ऐं ह्रीं श्रीं हसौं श्रीं ऐं ह्रीं क्लीं सौः सौः ऊँ ऐं ह्रीं क्लीं श्रीं जय जय महालक्ष्मी, जगदाद्ये,विजये सुरासुर त्रिभुवन निदाने दयांकुरे सर्व तेजो रूपिणी विरंचि संस्थिते, विधि वरदे सच्चिदानंदे विष्णु देहावृते महामोहिनी नित्य वरदान तत्परे महासुधाब्धि वासिनी महातेजो धारिणी सर्वाधारे सर्वकारण कारिणे अचिंत्य रूपे इंद्रादि सकल निर्जर सेविते सामगान गायन परिपूर्णोदय कारिणी विजये जयंति अपराजिते सर्व सुंदरि रक्तांशुके सूर्य कोटि संकाशे चंद्र कोटि सुशीतले अग्निकोटि दहनशीले यम कोटि वहनशीले ऊँकार नाद बिंदु रूपिणी निगमागम भाग्यदायिनी त्रिदश राज्य दायिनी सर्व स्त्री रत्न स्वरूपिणी दिव्य देहिनि निर्गुणे सगुणे सदसद रूप धारिणी सुर वरदे भक्त त्राण तत्परे बहु वरदे सहस्राक्षरे अयुताक्षरे सप्त कोटि लक्ष्मी रूपिणी अनेक लक्षलक्ष स्वरूपे अनंत कोटि ब्रहमाण्ड नायिके चतुर्विंशति मुनिजन संस्थिते चतुर्दश भुवन भाव विकारिणे गगन वाहिनी नाना मंत्र राज विराजिते सकल सुंदरी गण सेविते चरणारविंद्र महात्रिपुर सुंदरी कामेश दायिते करूणा रस कल्लोलिनी कल्पवृक्षादि स्थिते चिंतामणि द्वय मध्यावस्थिते मणिमंदिरे निवासिनी विष्णु वक्षस्थल कारिणे अजिते अमले अनुपम चरिते मुक्तिक्षेत्राधिष्ठायिनी प्रसीद प्रसीद सर्व मनोरथान पूरय पूरय सर्वारिष्टान छेदय छेदय सर्वग्रह पीडा ज्वराग्र भय विध्वंसय विध्वंसय सर्व त्रिभुवन जातं वशय वशय मोक्ष मार्गाणि दर्शय दर्शय ज्ञानमार्ग प्रकाशय प्रकाशय अज्ञान तमो नाशय नाशय धनधान्यादि वृद्धिं कुरूकुरू सर्व कल्याणानि कल्पय कल्पय माम रक्ष रक्ष सर्वापदभ्यो निस्तारय निस्तारय वज्र शरीरं साधय साधय ह्रीं सहस्राक्षरी सिद्ध लक्ष्मी महाविद्यायै नमः ।
इसे आप चन्द्र ग्रहण/शरद पूर्णिमा/दीपावली/पूर्णिमा/ या किसी भी दिन कर सकते हैं ।
शाबर मंत्र सामान्य जन की भाषा में लिखे हुए मंत्र होते हैं और उसमें व्याकरण की त्रुटि या शब्दों का अर्थ निकालने का प्रयास नहीं करना चाहिए और वे जैसे हैं वैसे ही पाठ कर लेना चाहिए । इसमें अलग-अलग स्रोतों के हिसाब से शब्दों में फर्क पड़ सकता है जो कि अलग-अलग साधकों के द्वारा अपने ढंग से प्रस्तुत किए जाते हैं लेकिन सभी सुखद परिणाम देते हैं। पढ़ने में सरल होते हैं इसलिए कोई भी व्यक्ति से कर सकता है । इन मंत्रों का प्रयोग पुरुष या स्त्री कोई भी कर सकता है ।
मंत्र
ॐ नमो आदेश गुरु को | नमो सिद्ध गणपति प्रसादात विघ्न हर्तुम गणपत गणपत वसो मसाण | जो फल चाहूं सो फल आण , पञ्च लाडूँ , सिर सिन्दूर , रिद्धि सिद्धि आण | गौरी का पुत्र सिंहासन बैठा | राजा काम्पै प्रजा काम्पै दृष्टे राजा सिम चाम्पे| पञ्च कोष पूर्व पश्चिम से आण उत्तर से आण दक्षिण से आण | इतनी कर रिद्धि सिद्धि मेरे घर द्वार आण| राजा प्रजा अभी मेरो पड़े पाँव न पड़े तो लाजे मैया गौरी | जो मै देखूं गणेश बाला कर मंत्र का सत की फट फट स्वाहा |
विधि
भोजपत्र पर इस मंत्र को लिख कर उसके सामने जाप करें ग्रहण काल मे 108 बार जाप करें । ज्यादा कर पाएँ तो और अच्छा । जाप के समय गुग्गुल का धुप जलता रहे तो अच्छा है. जाप के बाद ताबीज में भरकर पहन लें या धन रखने के स्थान में रख लें. दूकान हो तो वहां गल्ले में भी रख सकते हैं.
भूलोक के पालन कर्ता हैं भगवान् विष्णु और उनकी शक्ति हैं महामाया महालक्ष्मी .... इस संसार में जो भी चंचलता है अर्थात गति है उसके मूल में वे ही हैं..... उनके अभाव में गृहस्थ जीवन अधूरा अपूर्ण अभावयुक्त और अभिशापित है.... लक्ष्मी की कृपा के बिना सुखद गृहस्थ जीवन बेहद कठिन है...............
भगवती लक्ष्मी का बीज मन्त्र है:- ॥ श्रीं ॥ shreem
. गुलाबी या लाल रंग के वस्त्र तथा आसन का प्रयोग करें. न हों तो कोई भी साफ धुला वस्त्र पहन कर बैठें. अगरबत्ती इत्र आदि से पूजा स्थल को सुगन्धित करें. विवाहित हों तो पत्नी सहित बैठें तो और लाभ मिलेगा. ग्रहण काल मे 108 माला या यथा शक्ति जाप करें. क्षमता हो तो तेल/घी का दीपक लगायें ।
यदि आपका पति आपसे विरक्त हो गया हो लगातार झगड़ा होता रहता हो बेवजह दूरियां बन गई हो तो इस साधना से अनुकूलता मिलेगी |
विधि :- कामिया सिन्दूर मिल जाये तो उसे सामने रख लें. ना मिले तो जिस कुमकुम से आप बिंदी लगाती हैं वह ...... या फिर स्टिकर बिंदी का प्रयोग करती हैं तो स्टीकर बिंदी के पैकेट को अपने सामने लाल कपड़े में रख लेंगे । जाप करने के बाद उस लाल कपड़े में लपेटकर रख लेंगे अगले दिन फिर उसे खोल कर जाप करना है । यदि लाल कपडे में रखने में दिक्कत हो तो ऐसे भी पूजा स्थान में रखकर कर सकते हैं ,.
अगर आपका कोई गुरु हो या किसी देवता को गुरु मानते हो तो उनके मंत्र का तीन बार जाप कर लें यदि गुरु नहीं हो तो निम्नलिखित गुरु मंत्र का 3 बार जाप कर ले ॐ श्री गुरु मण्डलाय नमः
इसके बाद अपने दाएं हाथ में एक चम्मच पानी रख लें और अपनी इच्छा (अर्थात मेरा और मेरे पति के बीच में संबंध अच्छा बना रहे ) ऐसी भावना करके उस जल को जमीन पर छोड़ देंगे
उसके बाद निम्नलिखित मंत्र का जाप करेंगे
"हथेली में हनुमन्त बसै, भैरु बसे कपार।
नरसिंह की मोहिनी, मोहे सब संसार।
मोहन रे मोहन्ता वीर, सब वीरन में तेरा सीर।
सबकी नजर बाँध दे, तेल सिन्दूर चढ़ाऊँ तुझे।
तेल सिन्दूर कहाँ से आया ?
कैलास-पर्वत से आया।
कौन लाया, अञ्जनी का हनुमन्त,गौरी का गनेश लाया।
काला, गोरा, तोतला-तीनों बसे कपार।
बिन्दा तेल सिन्दूर का, दुश्मन गया पाताल।
दुहाई कमिया सिन्दूर की, हमें देख शीतल हो जाए भरतार ।
सत्य नाम, आदेश गुरु की।
7 सितंबर को पूर्णिमा भी है चंद्र ग्रहण भी है उस दिन भी आप इसको १०८ बार या जितनी आपकी क्षमता हो उतनी बार कर सकते हैं . उसके बाद अगली पूर्णिमा तक इसे नित्य कम से कम ११ बार करें .
इसके आलावा आप निम्नलिखित समय में भी इस कर सकते हैं ;-
.....1.... इस मन्त्र को रोज 11 बार जाप होलिका दहन की रात्रि से प्रारंभ कर रामनवमी तक करें ।
हनुमान जयंती वाले दिन हनुमान मंदिर में एक नारियल और 21 रुपये या जितनी आपकी शक्ति हो उतना चढ़ा दें ।
हनुमान जयंती के बाद किसी भी दिन से इसका टीका [बिंदी] लगाकर पति के पास जाएँ. मन में हमेशा भाव रखें कि सब अच्छा हो जाएगा ।
...,........2....., नित्य 108 जाप रोज पूरी नवरात्री में करें . आखिरी दिन हनुमान मंदिर में एक नारियल और 21 रुपये या जितनी आपकी शक्ति हो उतना चढ़ा दें ।
इसका टीका [बिंदी] लगाकर पति के पास जाएँ. मन में हमेशा भाव रखें कि सब अच्छा हो जाएगा ।
.,........3......
यदि होली,नवरात्रि में ना कर पाएं तो किसी भी पूर्णिमा से अगली पूर्णिमा तक रोज 11 बार जाप कर सकते हैं। आखिरी दिन हनुमान मंदिर में एक नारियल और 21 रुपये या जितनी आपकी शक्ति हो उतना चढ़ा दें । बिंदी या कुमकुम रखने में दिक्कत हो तो माता गौरी के भगवान शिव के साथ वाले स्वरूप का ध्यान करके जाप कर लेंगे । टीका या बिंदी लगाते समय इस मंत्र का जाप करते हुए टीका लगा लेंगे । .....,
ऐसा नित्य करें तो पति धीरे धीरे अनुकूल होने लगता है.
क्रोध करने से बचें और बेवजह का प्रलाप या बकवास ना करें
यह केवल आपके स्वयं के विवाहित पति के लिए काम करेगा .
यह स्तोत्र सर्वविध संकटों से मुक्ति की कामना के साथ भगवान की स्तुति में पढ़ा जा सकता है । पितृपक्ष में नित्य आप इस स्तोत्र को अपने पूर्वजों की शांति तथा मुक्ति के लिए पढ़ सकते हैं । सामान्यतः इसका पाठ सूर्योदय से पूर्व किया जाना श्रेष्ठ माना जाता है लेकिन आप चाहे तो इसे वीडियो देखकर बाद भी पढ़ सकते हैं । यदि आपको संस्कृत पढ़ने में दिक्कत हो तो आप उसका हिंदी अनुवाद भी पढ़ सकते हैं । वैसे संस्कृत का पाठ अगर आप दो-चार बार कर लेंगे तो आपको संस्कृत का पाठ भी आसान लगने लगेगा । इसके लिए आप प्रतिलिपि एफ एम पर जाकर मेरे चेनल मंत्र उच्चारण से इसका उच्चारण सुन सकते हैं ।. गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र की एक श्रेष्ठ विद्वान द्वारा हिंदी में लिखी हुई प्रतिकृति भी है जिसे अगले भाग में प्रकाशित करूंगा आप चाहे तो उसका पाठ भी कर सकते हैं यह सभी लगभग समान फलदाई है ।
बुद्धि के द्वारा पिछले अध्याय में वर्णित रीति से निश्चय करके तथा मन को हृदय देश में स्थिर करके वह गजराज अपने पूर्व जन्म में सीखकर कण्ठस्थ किये हुए सर्वश्रेष्ठ एवं बार बार दोहराने योग्य निम्नलिखित स्तोत्र का मन ही मन पाठ करने लगा ॥१॥
जिनकी चेतना को पाकर ये जड शरीर और मन आदि भी चेतन की भांति व्यवहार करने लगते हैं, ‘ओम’ शब्द के द्वारा लक्षित तथा सम्पूर्ण शरीर में प्रकृति एवं पुरुष रूप से प्रविष्ट हुए उन सर्व समर्थ परमेश्वर को मन ही मन प्रणाम है ॥२॥
वह, जिनके सहारे यह विश्व टिका है, जिनसे यह निकला है , जिन्होने इसकी रचना की है और जो स्वयं ही इसके रूप में प्रकट हैं – फिर भी जो इस दृश्य जगत से एवं इसकी कारणभूता प्रकृति से सर्वथा परे (विलक्षण ) एवं श्रेष्ठ हैं – उन स्वयंभू अर्थात अपने आप – बिना किसी कारण के – बने हुए भगवान की मैं शरण लेता हूं ॥३॥
यः स्वात्मनीदं निजमाययार्पितं क्वचिद्विभातं क्व च तत्तिरोहितम । अविद्धदृक साक्ष्युभयं तदीक्षते स आत्म मूलोsवत् मां परात्परः ॥४॥
वे प्रभु अपने संकल्प शक्ति के द्वारा अपने ही स्वरूप में रचे हुए हैं । सृष्टिकाल में प्रकट और प्रलयकाल में अप्रकट रहने वाले तथा इस शास्त्र प्रसिद्ध कार्य कारण रूप जगत को जो अकुण्ठित दृष्टि होने के कारण साक्षी रूप से देखते रहते हैं अर्थात उनसे लिप्त नही होते, वे चक्षु आदि प्रकाशकों के भी परम प्रकाशक अर्थात जो नेत्रों को देखने की शक्ति प्रदान करते हैं ऐसे प्रभु मेरी रक्षा करें ॥४॥
कालेन पंचत्वमितेषु कृत्स्नशो लोकेषु पालेषु च सर्व हेतुषु । तमस्तदाsसीद गहनं गभीरं यस्तस्य पारेsभिविराजते विभुः ॥५॥
(जहां s लिखा है वहाँ मात्रा को थोड़ा लंबा खींचकर उच्चरित करना है दाsसीद का उच्चारण होगा दाआसीद ) प्रलयकाल मे समय के प्रवाह से सम्पूर्ण लोकों के एवं ब्रह्मादि लोकपालों के पंचभूत में प्रवेश कर जाने पर तथा पंचभूतों से लेकर महत्वपर्यंत सम्पूर्ण कारणों के उनकी परमकरुणारूप प्रकृति में लीन हो जाने पर उस समय दुर्ज्ञेय तथा अपार अंधकाररूप प्रकृति ही बच रही थी। उस अंधकार मे भी उससे परे अपने परम धाम में जो सर्वव्यापक भगवान सर्वत्र प्रकाशित रहते हैं ऐसे मेरे प्रभु मेरी रक्षा करें ॥५॥
न यस्य देवा ऋषयः पदं विदुर्जन्तुः पुनः कोsर्हति गन्तुमीरितुम । यथा नटस्याकृतिभिर्विचेष्टतोदुरत्ययानुक्रमणः स मावतु ॥६॥
नाटक मे भिन्न भिन्न रूपों में नाट्य करने वाले अभिनेता के वास्तविक स्वरूप को जिस प्रकार साधारण दर्शक नही जान पाते , उसी प्रकार सत्त्व प्रधान देवता तथा ऋषि भी उन दिव्य प्रभु के स्वरूप को नही जानते , फिर दूसरा साधारण जीव कैसे उसे जान अथवा वर्णन कर सकता है – वे दुर्लभ चरित्र वाले प्रभु मेरी रक्षा करें ॥६॥
दिदृक्षवो यस्य पदं सुमंगलम विमुक्त संगा मुनयः सुसाधवः । चरन्त्यलोकव्रतमव्रणं वने भूतत्मभूता सुहृदः स मे गतिः ॥७॥
वे प्रभु जो आसक्ति से सर्वदा छूटे हुए , सम्पूर्ण प्राणियों में आत्मबुद्धि रखने वाले , सबके अकारण हितकारी है । अत्यंत सरल स्वभाव वाले मुनिगण जिनके परम मंगलमय स्वरूप का साक्षात्कार करने की इच्छा से वन में रह कर अखण्ड ब्रह्मचार्य आदि अलौकिक व्रतों का पालन करते हैं , वे प्रभु ही मेरी गति हैं ॥७॥
न विद्यते यस्य न जन्म कर्म वा न नाम रूपे गुणदोष एव वा । तथापि लोकाप्ययाम्भवाय यः स्वमायया तान्युलाकमृच्छति ॥८॥
जो जन्म मृत्यु से परे हैं । जिनका हमारी तरह कर्मवश ना तो जन्म होता है और न जिनके द्वारा अहंकार प्रेरित कर्म ही होते हैं, जिनके निर्गुण स्वरूप का न तो कोई नाम है न रूप ही, फिर भी समयानुसार जगत की सृष्टि एवं प्रलय (संहार) के लिये स्वेच्छा से जन्म आदि को स्वीकार करते हैं ॥८॥
जिनके कृपा कटाक्ष से आत्मा प्रकाश प्राप्त होता है और जो सबके साक्षी हैं ऐसे परमात्मा को नमस्कार है । उन प्रभु को जो मन, वाणी एवं चित्तवृत्तियों से भी सर्वथा परे हैं, उनको मेरा नमस्कार है ॥१०॥
विवेकी पुरुष के द्वारा जो सात्विक आचार विचार और वह संयुक्त है और वैसा ही आचरण करके उस परम मोक्ष सुख की अनुभूति को प्राप्त कर पाता है उसी अनुभूति के साक्षात रूप उस प्रभु को नमस्कार है ॥११॥
नमः शान्ताय घोराय मूढाय गुण धर्मिणे । निर्विशेषाय साम्याय नमो ज्ञानघनाय च ॥१२॥
सत्त्वगुण को स्वीकार करके शान्त , रजोगुण को स्वीकार करके घोर एवं तमोगुण को स्वीकार करके मूढ से प्रतीत होने वाले, तीनों अवस्थाओं में किसी भी प्रकार के भेद से रहित, सदा समभाव से स्थित ज्ञान के पूंजीभूत स्वरूप प्रभु को नमस्कार है ॥१२॥
क्षेत्र अर्थात इस संपूर्ण ब्रह्मांड में स्थित चराचर विंडो के स्वामी और उनकी गतिविधियों को साक्षी रूप से देखते रहने वाले मूल पुरुष स्वरूप और मूल प्रकृति स्वरूप प्रभु को मैं नमस्कार करता हूं ॥१३॥
सर्वेन्द्रियगुणद्रष्ट्रे सर्वप्रत्ययहेतवे । असताच्छाययोक्ताय सदाभासय ते नमः ॥१४॥
सम्पूर्ण इन्द्रियों एवं उनके विषयों के ज्ञाता, समस्त प्रतीतियों के कारण रूप, सम्पूर्ण जड-प्रपंच एवं सम्पूर्ण विषयों में विराजमान रहने वाले और अपना आभास देने वाले आपको नमस्कार है ॥१४॥
वे प्रभु जो सबके कारण हैं किंतु स्वयं कारण रहित हैं । जो कारण होने पर भी परिणाम रहित होने के कारण, अन्य कारणों से विलक्षण हैं इसलिए आपको बारम्बार नमस्कार है । सम्पूर्ण आगमों, आम्नायो के परम तात्पर्य भगवान को नमस्कार है ॥१५॥ ॥
जो त्रिगुणरूप काष्ठों में छिपे हुए ज्ञानरूप अग्नि हैं, उक्त गुणों में हलचल होने पर जिनके मन में सृष्टि रचने की बाह्य वृत्ति जागृत हो उठती है तथा आत्म तत्त्व की भावना के द्वारा ज्ञानी महात्माओं में जो स्वयं प्रकाशित हो रहे हैं उन प्रभु को मैं नमस्कार करता हूँ ॥१।६॥
मुझ जैसे शरणागत पशुतुल्य (अविद्याग्रस्त) जीव जो विभिन्न पाशों या बंधनों मे फंसे हुए हैं उन्हे सदा के लिये पूर्णरूप से काट देने वाले अत्याधिक दयालू नित्यमुक्त प्रभु को नमस्कार है । अपने अंश से संपूर्ण जीवों के मन में अन्तर्यामी रूप से प्रकट रहने वाले भगवन आप को नमस्कार है ॥१७॥
शरीर, पुत्र, मित्र, घर, संपंत्ती एवं कुटुंबियों के मोह मे फंसे लोगों के द्वारा कठिनता से प्राप्त होने वाले तथा इन प्रपंचों से मुक्त पुरुषों के द्वारा अपने हृदय में निरन्तर चिन्तित ज्ञानस्वरूप , सर्वसमर्थ भगवान को नमस्कार है ॥१८॥
जिन्हे धर्म, काम भोग, धन तथा मोक्ष की कामना से भजने वाले लोग अपनी मनचाही गति पा लेते हैं अपितु जो उन्हे अन्य प्रकार के भोग एवं अविनाशी देह भी देते हैं वे अतिशय दयालु प्रभु मुझे इस विपत्ती से सदा के लिये उबार लें ॥१९॥
एकान्तिनो यस्य न कंचनार्थ वांछन्ति ये वै भगवत्प्रपन्नाः । अत्यद्भुतं तच्चरितं सुमंगलं गायन्त आनन्न्द समुद्रमग्नाः ॥२०॥
जिनके अनन्य भक्त -जो वस्तुतः एकमात्र उन भगवान के ही शरण है-धर्म , अर्थ आदि किसी भी पदार्थ को नही चाह्ते, अपितु उन्ही के परम मंगलमय एवं अत्यन्त विलक्षण चरित्रों का गान करते हुए आनन्द के समुद्र में गोते लगाते रहते हैं ॥२०॥
उन अविनाशी, सर्वव्यापक, सर्वश्रेष्ठ, ब्रह्मादि के भी नियामक, अभक्तों के लिये प्रकट होने पर भी भक्तियोग द्वारा प्राप्त करने योग्य, अत्यन्त निकट होने पर भी माया के आवरण के कारण अत्यन्त दूर प्रतीत होने वाले , इन्द्रियों के द्वारा अगम्य तथा अत्यन्त दुर्विज्ञेय, अन्तरहित किंतु सबके आदिकारण एवं सब ओर से परिपूर्ण उन भगवान की मैं स्तुति करता हूँ ॥२१॥
इस प्रकृति में दिखाई देने वाले ब्रह्मादि समस्त देवता, चारों वेद तथा संपूर्ण चराचर जीव नाम और आकृति भेद से जिनके अत्यन्त क्षुद्र अंश के द्वारा रचे गये हैं ॥२२॥
जिस प्रकार प्रज्ज्वलित अग्नि से लपटें तथा सूर्य से किरणें बार बार निकलती है और पुनः अपने कारण मे लीन हो जाती है उसी प्रकार बुद्धि, मन, इन्द्रियाँ और नाना योनियों के शरीर – यह गुणमय प्रपंच उसी परमात्मा से प्रकट होता है और पुनः उन्ही में लीन हो जाता है ॥२३॥
स वै न देवासुरमर्त्यतिर्यंग न स्त्री न षण्डो न पुमान न जन्तुः । नायं गुणः कर्म न सन्न चासन निषेधशेषो जयतादशेषः ॥२४॥
वे भगवान न तो देवता हैं न असुर, न मनुष्य हैं न तिर्यक (मनुष्य से नीची – पशु , पक्षी आदि किसी) योनि के प्राणी है । न वे स्त्री हैं न पुरुष और न नपुंसक ही हैं । न वे ऐसे कोई जीव हैं, जिनका इन तीनों ही श्रेणियों में समावेश हो सके । न वे गुण हैं न कर्म, न कार्य हैं न तो कारण ही । सबका निषेध हो जाने पर जो कुछ बच रहता है, वही उनका स्वरूप है और वे ही सब कुछ है । ॥२४॥
मैं इस ग्राह के चंगुल से छूट कर जीवित नही रहना चाहता; क्योंकि भीतर और बाहर – सब ओर से अज्ञान से ढके हुए इस हाथी के शरीर से मुझे क्या लेना है । मैं तो आत्मा के प्रकाश को ढक देने वाले उस अज्ञान की निवृत्ति चाहता हूँ, जिसका कालक्रम से अपने आप नाश नही होता , अपितु भगवान की दया से अथवा ज्ञान के उदय से होता है ॥२५॥
इस प्रकार मोक्ष का अभिलाषी मैं विश्व के रचियता, स्वयं विश्व के रूप में प्रकट तथा विश्व से सर्वथा परे, विश्व को खिलौना बनाकर खेलने वाले, विश्व में आत्मरूप से व्याप्त , अजन्मा, सर्वव्यापक एवं प्राप्त्य वस्तुओं में सर्वश्रेष्ठ श्री भगवान को प्रणाम करता हुआ उनकी शरण में हूँ ॥२६॥
जिन्होने भगवद्भक्ति रूप योग के द्वारा कर्मों को जला डाला है, वे योगी लोग उसी योग के द्वारा शुद्ध किये हुए अपने हृदय कमल में जिन्हे प्रकट हुआ देखते हैं उन योगेश्वर भगवान को मैं नमस्कार करता हूँ ॥२७॥
जिनकी त्रिगुणात्मक (सत्त्व-रज-तमरूप ) शक्तियों का रागरूप वेग असह्य है, जो सम्पूर्ण इन्द्रियों के विषयरूप में प्रतीत हो रहे हैं, अर्थात जिनकी इन्द्रियाँ विषयों के भोग में ही रची पची रहती हैं-ऐसे लोगों को जिस प्रभु का मार्ग भी मिलना असंभव है, उन शरणागतरक्षक एवं अपारशक्तिशाली आपको बार बार नमस्कार है ॥२८॥
जिनकी अविद्या नामक शक्ति के कार्यरूप अहंकार से ढंके हुए अपने स्वरूप को यह जीव जान नही पाता, उन अपार महिमा वाले भगवान की मैं शरण मे आया हूँ ॥२९॥
श्री शुकदेव उवाच –
श्री शुकदेवजी ने कहा –
एवं गजेन्द्रमुपवर्णितनिर्विशेषं ब्रह्मादयो विविधलिंगभिदाभिमानाः । नैते यदोपससृपुर्निखिलात्मकत्वाततत्राखिलामर्मयो हरिराविरासीत ॥३०॥
इस प्रकार से भगवान के भेदरहित निराकार स्वरूप का वर्णन करने वाले उस गजराज के समीप ब्रह्मा आदि कोई भी देवता नही आये, क्योंकि वे भिन्न भिन्न प्रकार के विशिष्ट विग्रहों को ही अपना स्वरूप मानते हैं, तब सक्षात श्री हरि- जो सबके आत्मा होने के कारण सर्वदेवस्वरूप हैं-वहाँ प्रकट हो गये ॥३०॥
उपर्युक्त गजराज को उस प्रकार दुःखी देख कर तथा उसके द्वारा पढी हुई सुंदर स्तुति को सुन कर सुदर्शनचक्रधारी जगदाधार भगवान इच्छानुरूप वेग वाले गरुड जी की पीठ पर सवार होकर स्तवन करते हुए देवताओं के साथ तत्काल उस स्थान पर पहुँच गये जहाँ वह हाथी था ।
उत्क्षिप्य साम्बुजकरं गिरमाह कृच्छा न्नारायण्खिलगुरो भगवान नम्स्ते ॥३२॥
सरोवर के भीतर महाबली ग्राह के द्वारा पकडे जाकर दुःखी हुए उस हाथी ने आकाश में गरुड की पीठ पर सवार चक्र उठाये हुए भगवान श्री हरि को देखकर अपनी सूँड को -जिसमें उसने (पूजा के लिये) कमल का एक फूल ले रक्खा था-ऊपर उठाया और बडी ही कठिनाई से “सर्वपूज्य भगवान नारायण आपको प्रणाम है” यह वाक्य कहा ॥३२॥
उसे पीडित देख कर अजन्मा श्री हरि एकाएक गरुड को छोडकर नीचे झील पर उतर आये । वे दया से प्रेरित हो ग्राहसहित उस गजराज को तत्काल झील से बाहर निकाल लाये और देवताओं के देखते देखते चक्र से मुँह चीर कर उसके चंगुल से हाथी को उबार लिया ॥३३॥
अगर आपको संस्कृत में उच्चारण करने में दिक्कत हो तो आप इसका भावार्थ हिंदी में भी उच्चरित कर सकते हैं जो कि निम्नानुसार है
जो अमूर्त, अत्यन्त तेजस्वी, ध्यानी तथा दिव्यदृष्टि सम्पन्न हैं, उन पितरों को मैं सदा नमस्कार करता हूँ।
इन्द्र आदि देवताओं, दक्ष, मारीच, सप्तर्षियों तथा दूसरों के भी नायक हैं, सभी कामना की पूर्ति करने वाले उन पितरो को मैं प्रणाम करता हूँ।
मनु आदि राजर्षियों, मुनिश्वरों तथा सूर्य और चन्द्रमा के भी नायक समस्त पितरों को मैं जल और समुद्र में भी प्रणाम करता हूँ।
नक्षत्रों, ग्रहों, वायु, अग्नि, आकाश और द्युलोक तथा पृथ्वी के भी जो प्रमुख हैं, उन पितरों को मैं प्रणाम करता हूँ।
देवर्षियों के जन्मदाता, समस्त लोकों द्वारा वन्दित तथा सदा अक्षय फल के दाता, पितरों को मैं प्रणाम करता हूँ।
प्रजापति, कश्यप, सोम, वरूण तथा योगेश्वरों के रूप में स्थित पितरों को सदा प्रणाम करता हूँ।
सातों लोकों में स्थित सात पितृगणों को नमस्कार है। मैं योगदृष्टिसम्पन्न स्वयम्भू ब्रह्माजी को प्रणाम करता हूँ।
चन्द्रमा के आधार पर प्रतिष्ठित तथा योगमूर्तिधारी पितृगणों को मैं प्रणाम करता हूँ।
सम्पूर्ण जगत् के पिता सोम को नमस्कार करता हूँ।
अग्निस्वरूप अन्य पितरों को मैं प्रणाम करता हूँ, क्योंकि यह सम्पूर्ण जगत् अग्नि और सोममय है।
जो पितर तेज में स्थित हैं, जो ये चन्द्रमा, सूर्य और अग्नि के रूप में दृष्टिगोचर होते हैं तथा जो जगत्स्वरूप एवं ब्रह्मस्वरूप हैं, उन सम्पूर्ण योगी पितरो को मैं एकाग्रचित्त होकर प्रणाम करता हूँ।
समस्त पितरो को मैं बारम्बार नमस्कार करता हुआ उनकी कृपा का आकांक्षी हूं ।
वे स्वधाभोजी पितर मुझपर प्रसन्न हों। वह मुझ पर कृपालु हो और मेरे समस्त दोषों का प्रशमन करते हुए मुझे सर्व विध अनुकूलता प्रदान करें ....
विधि :-
एक थाली में भोजन तैयार करके रख ले तथा स्तोत्र का यथाशक्ति (1,3,7,9,11) पाठ करके किसी गाय को या किसी गरीब व्यक्ति को खिला दे ।
यह स्तोत्र सर्वविध संकटों से मुक्ति की कामना के साथ भगवान की स्तुति में पढ़ा जा सकता है । पितृपक्ष में नित्य आप इस स्तोत्र को अपने पूर्वजों की शांति तथा मुक्ति के लिए पढ़ सकते हैं । सामान्यतः इसका पाठ सूर्योदय से पूर्व किया जाना श्रेष्ठ माना जाता है लेकिन आप चाहे तो इसे वीडियो देखकर बाद भी पढ़ सकते हैं । यदि आपको संस्कृत पढ़ने में दिक्कत हो तो आप उसका हिंदी अनुवाद भी पढ़ सकते हैं । वैसे संस्कृत का पाठ अगर आप दो-चार बार कर लेंगे तो आपको संस्कृत का पाठ भी आसान लगने लगेगा । इसके लिए आप प्रतिलिपि एफ एम पर जाकर मेरे चेनल मंत्र उच्चारण से इसका उच्चारण सुन सकते हैं ।. गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र की एक श्रेष्ठ विद्वान द्वारा हिंदी में लिखी हुई प्रतिकृति भी है जिसे अगले भाग में प्रकाशित करूंगा आप चाहे तो उसका पाठ भी कर सकते हैं यह सभी लगभग समान फलदाई है ।
बुद्धि के द्वारा पिछले अध्याय में वर्णित रीति से निश्चय करके तथा मन को हृदय देश में स्थिर करके वह गजराज अपने पूर्व जन्म में सीखकर कण्ठस्थ किये हुए सर्वश्रेष्ठ एवं बार बार दोहराने योग्य निम्नलिखित स्तोत्र का मन ही मन पाठ करने लगा ॥१॥
जिनकी चेतना को पाकर ये जड शरीर और मन आदि भी चेतन की भांति व्यवहार करने लगते हैं, ‘ओम’ शब्द के द्वारा लक्षित तथा सम्पूर्ण शरीर में प्रकृति एवं पुरुष रूप से प्रविष्ट हुए उन सर्व समर्थ परमेश्वर को मन ही मन प्रणाम है ॥२॥
वह, जिनके सहारे यह विश्व टिका है, जिनसे यह निकला है , जिन्होने इसकी रचना की है और जो स्वयं ही इसके रूप में प्रकट हैं – फिर भी जो इस दृश्य जगत से एवं इसकी कारणभूता प्रकृति से सर्वथा परे (विलक्षण ) एवं श्रेष्ठ हैं – उन स्वयंभू अर्थात अपने आप – बिना किसी कारण के – बने हुए भगवान की मैं शरण लेता हूं ॥३॥
यः स्वात्मनीदं निजमाययार्पितं क्वचिद्विभातं क्व च तत्तिरोहितम । अविद्धदृक साक्ष्युभयं तदीक्षते स आत्म मूलोsवत् मां परात्परः ॥४॥
वे प्रभु अपने संकल्प शक्ति के द्वारा अपने ही स्वरूप में रचे हुए हैं । सृष्टिकाल में प्रकट और प्रलयकाल में अप्रकट रहने वाले तथा इस शास्त्र प्रसिद्ध कार्य कारण रूप जगत को जो अकुण्ठित दृष्टि होने के कारण साक्षी रूप से देखते रहते हैं अर्थात उनसे लिप्त नही होते, वे चक्षु आदि प्रकाशकों के भी परम प्रकाशक अर्थात जो नेत्रों को देखने की शक्ति प्रदान करते हैं ऐसे प्रभु मेरी रक्षा करें ॥४॥
कालेन पंचत्वमितेषु कृत्स्नशो लोकेषु पालेषु च सर्व हेतुषु । तमस्तदाsसीद गहनं गभीरं यस्तस्य पारेsभिविराजते विभुः ॥५॥
(जहां s लिखा है वहाँ मात्रा को थोड़ा लंबा खींचकर उच्चरित करना है दाsसीद का उच्चारण होगा दाआसीद ) प्रलयकाल मे समय के प्रवाह से सम्पूर्ण लोकों के एवं ब्रह्मादि लोकपालों के पंचभूत में प्रवेश कर जाने पर तथा पंचभूतों से लेकर महत्वपर्यंत सम्पूर्ण कारणों के उनकी परमकरुणारूप प्रकृति में लीन हो जाने पर उस समय दुर्ज्ञेय तथा अपार अंधकाररूप प्रकृति ही बच रही थी। उस अंधकार मे भी उससे परे अपने परम धाम में जो सर्वव्यापक भगवान सर्वत्र प्रकाशित रहते हैं ऐसे मेरे प्रभु मेरी रक्षा करें ॥५॥
न यस्य देवा ऋषयः पदं विदुर्जन्तुः पुनः कोsर्हति गन्तुमीरितुम । यथा नटस्याकृतिभिर्विचेष्टतोदुरत्ययानुक्रमणः स मावतु ॥६॥
नाटक मे भिन्न भिन्न रूपों में नाट्य करने वाले अभिनेता के वास्तविक स्वरूप को जिस प्रकार साधारण दर्शक नही जान पाते , उसी प्रकार सत्त्व प्रधान देवता तथा ऋषि भी उन दिव्य प्रभु के स्वरूप को नही जानते , फिर दूसरा साधारण जीव कैसे उसे जान अथवा वर्णन कर सकता है – वे दुर्लभ चरित्र वाले प्रभु मेरी रक्षा करें ॥६॥
दिदृक्षवो यस्य पदं सुमंगलम विमुक्त संगा मुनयः सुसाधवः । चरन्त्यलोकव्रतमव्रणं वने भूतत्मभूता सुहृदः स मे गतिः ॥७॥
वे प्रभु जो आसक्ति से सर्वदा छूटे हुए , सम्पूर्ण प्राणियों में आत्मबुद्धि रखने वाले , सबके अकारण हितकारी है । अत्यंत सरल स्वभाव वाले मुनिगण जिनके परम मंगलमय स्वरूप का साक्षात्कार करने की इच्छा से वन में रह कर अखण्ड ब्रह्मचार्य आदि अलौकिक व्रतों का पालन करते हैं , वे प्रभु ही मेरी गति हैं ॥७॥
न विद्यते यस्य न जन्म कर्म वा न नाम रूपे गुणदोष एव वा । तथापि लोकाप्ययाम्भवाय यः स्वमायया तान्युलाकमृच्छति ॥८॥
जो जन्म मृत्यु से परे हैं । जिनका हमारी तरह कर्मवश ना तो जन्म होता है और न जिनके द्वारा अहंकार प्रेरित कर्म ही होते हैं, जिनके निर्गुण स्वरूप का न तो कोई नाम है न रूप ही, फिर भी समयानुसार जगत की सृष्टि एवं प्रलय (संहार) के लिये स्वेच्छा से जन्म आदि को स्वीकार करते हैं ॥८॥
जिनके कृपा कटाक्ष से आत्मा प्रकाश प्राप्त होता है और जो सबके साक्षी हैं ऐसे परमात्मा को नमस्कार है । उन प्रभु को जो मन, वाणी एवं चित्तवृत्तियों से भी सर्वथा परे हैं, उनको मेरा नमस्कार है ॥१०॥
विवेकी पुरुष के द्वारा जो सात्विक आचार विचार और वह संयुक्त है और वैसा ही आचरण करके उस परम मोक्ष सुख की अनुभूति को प्राप्त कर पाता है उसी अनुभूति के साक्षात रूप उस प्रभु को नमस्कार है ॥११॥
नमः शान्ताय घोराय मूढाय गुण धर्मिणे । निर्विशेषाय साम्याय नमो ज्ञानघनाय च ॥१२॥
सत्त्वगुण को स्वीकार करके शान्त , रजोगुण को स्वीकार करके घोर एवं तमोगुण को स्वीकार करके मूढ से प्रतीत होने वाले, तीनों अवस्थाओं में किसी भी प्रकार के भेद से रहित, सदा समभाव से स्थित ज्ञान के पूंजीभूत स्वरूप प्रभु को नमस्कार है ॥१२॥
क्षेत्र अर्थात इस संपूर्ण ब्रह्मांड में स्थित चराचर विंडो के स्वामी और उनकी गतिविधियों को साक्षी रूप से देखते रहने वाले मूल पुरुष स्वरूप और मूल प्रकृति स्वरूप प्रभु को मैं नमस्कार करता हूं ॥१३॥
सर्वेन्द्रियगुणद्रष्ट्रे सर्वप्रत्ययहेतवे । असताच्छाययोक्ताय सदाभासय ते नमः ॥१४॥
सम्पूर्ण इन्द्रियों एवं उनके विषयों के ज्ञाता, समस्त प्रतीतियों के कारण रूप, सम्पूर्ण जड-प्रपंच एवं सम्पूर्ण विषयों में विराजमान रहने वाले और अपना आभास देने वाले आपको नमस्कार है ॥१४॥
वे प्रभु जो सबके कारण हैं किंतु स्वयं कारण रहित हैं । जो कारण होने पर भी परिणाम रहित होने के कारण, अन्य कारणों से विलक्षण हैं इसलिए आपको बारम्बार नमस्कार है । सम्पूर्ण आगमों, आम्नायो के परम तात्पर्य भगवान को नमस्कार है ॥१५॥ ॥
जो त्रिगुणरूप काष्ठों में छिपे हुए ज्ञानरूप अग्नि हैं, उक्त गुणों में हलचल होने पर जिनके मन में सृष्टि रचने की बाह्य वृत्ति जागृत हो उठती है तथा आत्म तत्त्व की भावना के द्वारा ज्ञानी महात्माओं में जो स्वयं प्रकाशित हो रहे हैं उन प्रभु को मैं नमस्कार करता हूँ ॥१।६॥
मुझ जैसे शरणागत पशुतुल्य (अविद्याग्रस्त) जीव जो विभिन्न पाशों या बंधनों मे फंसे हुए हैं उन्हे सदा के लिये पूर्णरूप से काट देने वाले अत्याधिक दयालू नित्यमुक्त प्रभु को नमस्कार है । अपने अंश से संपूर्ण जीवों के मन में अन्तर्यामी रूप से प्रकट रहने वाले भगवन आप को नमस्कार है ॥१७॥
शरीर, पुत्र, मित्र, घर, संपंत्ती एवं कुटुंबियों के मोह मे फंसे लोगों के द्वारा कठिनता से प्राप्त होने वाले तथा इन प्रपंचों से मुक्त पुरुषों के द्वारा अपने हृदय में निरन्तर चिन्तित ज्ञानस्वरूप , सर्वसमर्थ भगवान को नमस्कार है ॥१८॥
जिन्हे धर्म, काम भोग, धन तथा मोक्ष की कामना से भजने वाले लोग अपनी मनचाही गति पा लेते हैं अपितु जो उन्हे अन्य प्रकार के भोग एवं अविनाशी देह भी देते हैं वे अतिशय दयालु प्रभु मुझे इस विपत्ती से सदा के लिये उबार लें ॥१९॥
एकान्तिनो यस्य न कंचनार्थ वांछन्ति ये वै भगवत्प्रपन्नाः । अत्यद्भुतं तच्चरितं सुमंगलं गायन्त आनन्न्द समुद्रमग्नाः ॥२०॥
जिनके अनन्य भक्त -जो वस्तुतः एकमात्र उन भगवान के ही शरण है-धर्म , अर्थ आदि किसी भी पदार्थ को नही चाह्ते, अपितु उन्ही के परम मंगलमय एवं अत्यन्त विलक्षण चरित्रों का गान करते हुए आनन्द के समुद्र में गोते लगाते रहते हैं ॥२०॥
उन अविनाशी, सर्वव्यापक, सर्वश्रेष्ठ, ब्रह्मादि के भी नियामक, अभक्तों के लिये प्रकट होने पर भी भक्तियोग द्वारा प्राप्त करने योग्य, अत्यन्त निकट होने पर भी माया के आवरण के कारण अत्यन्त दूर प्रतीत होने वाले , इन्द्रियों के द्वारा अगम्य तथा अत्यन्त दुर्विज्ञेय, अन्तरहित किंतु सबके आदिकारण एवं सब ओर से परिपूर्ण उन भगवान की मैं स्तुति करता हूँ ॥२१॥
इस प्रकृति में दिखाई देने वाले ब्रह्मादि समस्त देवता, चारों वेद तथा संपूर्ण चराचर जीव नाम और आकृति भेद से जिनके अत्यन्त क्षुद्र अंश के द्वारा रचे गये हैं ॥२२॥
जिस प्रकार प्रज्ज्वलित अग्नि से लपटें तथा सूर्य से किरणें बार बार निकलती है और पुनः अपने कारण मे लीन हो जाती है उसी प्रकार बुद्धि, मन, इन्द्रियाँ और नाना योनियों के शरीर – यह गुणमय प्रपंच उसी परमात्मा से प्रकट होता है और पुनः उन्ही में लीन हो जाता है ॥२३॥
स वै न देवासुरमर्त्यतिर्यंग न स्त्री न षण्डो न पुमान न जन्तुः । नायं गुणः कर्म न सन्न चासन निषेधशेषो जयतादशेषः ॥२४॥
वे भगवान न तो देवता हैं न असुर, न मनुष्य हैं न तिर्यक (मनुष्य से नीची – पशु , पक्षी आदि किसी) योनि के प्राणी है । न वे स्त्री हैं न पुरुष और न नपुंसक ही हैं । न वे ऐसे कोई जीव हैं, जिनका इन तीनों ही श्रेणियों में समावेश हो सके । न वे गुण हैं न कर्म, न कार्य हैं न तो कारण ही । सबका निषेध हो जाने पर जो कुछ बच रहता है, वही उनका स्वरूप है और वे ही सब कुछ है । ॥२४॥
मैं इस ग्राह के चंगुल से छूट कर जीवित नही रहना चाहता; क्योंकि भीतर और बाहर – सब ओर से अज्ञान से ढके हुए इस हाथी के शरीर से मुझे क्या लेना है । मैं तो आत्मा के प्रकाश को ढक देने वाले उस अज्ञान की निवृत्ति चाहता हूँ, जिसका कालक्रम से अपने आप नाश नही होता , अपितु भगवान की दया से अथवा ज्ञान के उदय से होता है ॥२५॥
इस प्रकार मोक्ष का अभिलाषी मैं विश्व के रचियता, स्वयं विश्व के रूप में प्रकट तथा विश्व से सर्वथा परे, विश्व को खिलौना बनाकर खेलने वाले, विश्व में आत्मरूप से व्याप्त , अजन्मा, सर्वव्यापक एवं प्राप्त्य वस्तुओं में सर्वश्रेष्ठ श्री भगवान को प्रणाम करता हुआ उनकी शरण में हूँ ॥२६॥
जिन्होने भगवद्भक्ति रूप योग के द्वारा कर्मों को जला डाला है, वे योगी लोग उसी योग के द्वारा शुद्ध किये हुए अपने हृदय कमल में जिन्हे प्रकट हुआ देखते हैं उन योगेश्वर भगवान को मैं नमस्कार करता हूँ ॥२७॥
जिनकी त्रिगुणात्मक (सत्त्व-रज-तमरूप ) शक्तियों का रागरूप वेग असह्य है, जो सम्पूर्ण इन्द्रियों के विषयरूप में प्रतीत हो रहे हैं, अर्थात जिनकी इन्द्रियाँ विषयों के भोग में ही रची पची रहती हैं-ऐसे लोगों को जिस प्रभु का मार्ग भी मिलना असंभव है, उन शरणागतरक्षक एवं अपारशक्तिशाली आपको बार बार नमस्कार है ॥२८॥
जिनकी अविद्या नामक शक्ति के कार्यरूप अहंकार से ढंके हुए अपने स्वरूप को यह जीव जान नही पाता, उन अपार महिमा वाले भगवान की मैं शरण मे आया हूँ ॥२९॥
श्री शुकदेव उवाच –
श्री शुकदेवजी ने कहा –
एवं गजेन्द्रमुपवर्णितनिर्विशेषं ब्रह्मादयो विविधलिंगभिदाभिमानाः । नैते यदोपससृपुर्निखिलात्मकत्वाततत्राखिलामर्मयो हरिराविरासीत ॥३०॥
इस प्रकार से भगवान के भेदरहित निराकार स्वरूप का वर्णन करने वाले उस गजराज के समीप ब्रह्मा आदि कोई भी देवता नही आये, क्योंकि वे भिन्न भिन्न प्रकार के विशिष्ट विग्रहों को ही अपना स्वरूप मानते हैं, तब सक्षात श्री हरि- जो सबके आत्मा होने के कारण सर्वदेवस्वरूप हैं-वहाँ प्रकट हो गये ॥३०॥
उपर्युक्त गजराज को उस प्रकार दुःखी देख कर तथा उसके द्वारा पढी हुई सुंदर स्तुति को सुन कर सुदर्शनचक्रधारी जगदाधार भगवान इच्छानुरूप वेग वाले गरुड जी की पीठ पर सवार होकर स्तवन करते हुए देवताओं के साथ तत्काल उस स्थान पर पहुँच गये जहाँ वह हाथी था ।
उत्क्षिप्य साम्बुजकरं गिरमाह कृच्छा न्नारायण्खिलगुरो भगवान नम्स्ते ॥३२॥
सरोवर के भीतर महाबली ग्राह के द्वारा पकडे जाकर दुःखी हुए उस हाथी ने आकाश में गरुड की पीठ पर सवार चक्र उठाये हुए भगवान श्री हरि को देखकर अपनी सूँड को -जिसमें उसने (पूजा के लिये) कमल का एक फूल ले रक्खा था-ऊपर उठाया और बडी ही कठिनाई से “सर्वपूज्य भगवान नारायण आपको प्रणाम है” यह वाक्य कहा ॥३२॥
उसे पीडित देख कर अजन्मा श्री हरि एकाएक गरुड को छोडकर नीचे झील पर उतर आये । वे दया से प्रेरित हो ग्राहसहित उस गजराज को तत्काल झील से बाहर निकाल लाये और देवताओं के देखते देखते चक्र से मुँह चीर कर उसके चंगुल से हाथी को उबार लिया ॥३३॥
गज के समान मुख वाले, भूतादि गण जिनकी सेवा करते हैं ऐसे विविध भोज्य पदार्थों के प्रेमी तथा बाधओं को दूर करने वाले देवी जगदम्बा के प्रियपुत्र भगवान गणेश के चरण कमलों को मैं सादर प्रणाम करता हूं ।
कलियुग में फलदायक साधनाओं के विषय में कहा गया है कि:-
‘कलौ चण्डी विनायकौ’
अर्थात कलियुग में चण्डी तथा गणपति साधनायें ज्यादा फलप्रद होंगी।
गणपति साधना को प्रारंभिक तथा अत्यंत लाभप्रद साधनाओं में गिना जाता है। योगिक विचार में मूलाधार चक्र को कुण्डली का प्रारंभ माना जाता है तथा गणपति उसके स्वामी माने जाते हैं। साथ ही शिव शक्ति के पुत्र होने के कारण दोनों की संयुक्त कृपा प्रदान करते हैं।
भगवती लक्ष्मी को चंचला कहा गया है । चंचला अर्थात जो एक स्थान पर ज्यादा देर तक न रह सकती हो । केवल लक्ष्मी का पूजन तथा साधना यद्यपि फलदायक होती है मगर अल्पकालिक होती है । लक्ष्मी के साथ गणपति का पूजन लक्ष्मी को स्थायित्व प्रदान करता है।
आगे की पंक्तियों में भगवान गणपति का एक स्तोत्र प्रस्तुत है। इस स्तोत्र का नित्य पाठ करना लाभप्रद होता है। यद्यपि यह कहना उचित नही होगा कि इस स्तोत्र के पाठ से आप धनवान बन जायेंगें, परंतु धनागमन के नए मार्गों के संबंध में नए विचार उपाय आदि आपके मस्तिष्क में उत्पन्न होंगें, जिनका सही प्रयोग कर आप धन प्राप्ति कर सकेंगें।
गणपति स्तोत्र
ऊं नमो विघ्नराजाय सर्वसौख्य प्रदायिने ।
दुष्टारिष्ट विनाशाय पराय परात्मने ।
लम्बोदरं महावीर्यं नागयज्ञोपशोभितं ।
अर्धचंद्रधरं देवं विघ्न व्यूह विनाशनम ।
ॐ हृॉं हृीं ह्रूँ हृैं हृौं हृः हेरम्बाय नमः ।
सर्व सिद्धिप्रदो सि त्वं सिद्धिबुद्धिप्रदो भवतः ।
चिंतितार्थ प्रदस्त्वं हि सततं मोदकप्रियः ।
सिंदूरारूण वस्त्रेश्च पूजितो वरदायकः ।
फलश्रुति:-
इदं गणपति स्तोत्रं यः पठेद भक्तिमान नरः ।
तस्य देहं च गेहं च लक्ष्मीर्न मुश्चति ।
इस स्तोत्र का 108 पाठ करें। इससे पहले भगवान गणपति के सामने अपनी इच्ठा या मनोकामना रखें तथा इसका पाठ प्रारंभ करें । भगवान गणपति की कृपा से आपको अपनी इच्ठा की पूर्ति में अवश्य सहायता मिलेगी।
यह एक छोटा गणेश भगवान का पूजन है जिसे आप लगभग 10 मिनट मे सम्पन्न कर सकते हैं
पहले गुरु स्मरण ,गणेश भैरव महालक्ष्मी स्मरण करे .. ॐ गुं गुरुभ्यो नमः ॐ श्री गणेशाय नमः
ॐ भ्रम भैरवाय नमः ॐ श्री महालक्ष्म्यै नमः
अब आप 4 बार आचमन करे दाए हाथ में पानी लेकर पिए गं आत्मतत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा गं विद्यातत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा गं शिव तत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा गं सर्व तत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा
अब आप घंटा नाद करे और उसे पुष्प अक्षत अर्पण करे घंटा देवताभ्यो नमः
अब आप जिस आसन पर बैठे है उस पर पुष्प अक्षत अर्पण करे आसन देवताभ्यो नमः
अब आप दीपपूजन करे उन्हें प्रणाम करे और पुष्प अक्षत अर्पण करे दीप देवताभ्यो नमः
अब आप कलश का पूजन करे ..उसमेगंध ,अक्षत ,पुष्प ,तुलसी,इत्र ,कपूर डाले ..उसे तिलक करे . कलश देवताभ्यो नमः
अब आप अपने आप को तिलक करे
फिर संक्षिप्त गुरु पुजन करे ॐ गुं गुरुभ्यो नम: । ॐ परम गुरुभ्यो नम: । ॐ पारमेष्ठी गुरुभ्यो नम: ।
उसके बाद गणपति का ध्यान करे वक्रतुण्ड महाकाय सूर्य कोटि समप्रभ निर्विघ्नं कुरु में देव सर्व कार्येशु सर्वदा
उनका आह्वान करें अर्थात बुलाएं श्री महागणपति आवाहयामि मम पूजन स्थाने रिद्धि सिद्धि सहित शुभ लाभ सहित स्थापयामि नमः
उनका स्वागत करें , फूल आदि चढ़ाएं त्वां चरणे गन्धाक्षत पुष्पं समर्पयामि ।
‘कलौ चण्डी-विनायकौ’-कलियुग में ‘चण्डी’ और ‘गणेश’ की साधना ही श्रेयस्कर है।
मेरे गुरुदेव ने बताया था कि कलयुग में चंडी अर्थात भगवती जगदंबा की साधना और विनायक अर्थात गणेश भगवान की साधना या पूजा करने से ज्यादा लाभप्रद होता है ।
गणेश भगवान की साधना सरल है और उसमें बहुत ज्यादा विधि-विधान और जटिलता की आवश्यकता नहीं है इसीलिए सर्वसामान्य में गणेश भगवान की पूजन का बहुत ज्यादा प्रचलन है जो हम गणेशोत्सव के रूप में प्रतिवर्ष देखते हैं । गणेश भगवान के पूजन के लिए आप पंचोपचार व षोडशोपचार जैसे पूजन विधान का प्रयोग कर सकते हैं लेकिन उसमें संस्कृत श्लोकों का ज्यादा प्रयोग होता है जो पढ़ने में सामान्य जन को थोड़ी दिक्कत होती है । लेकिन करते करते उच्चारण स्पष्ट हो जाता है । पूजन की एक अन्य विधि है अष्टोत्तर शतनाम !
अष्टोत्तर शतनाम का मतलब होता है, गणेश भगवान के 108 नाम के साथ उनका प्रणाम करते हुए पूजन करना जो कि सरल है और हर कोई कर सकता है ।
आप इन नाम का उच्चारण करने के बाद हर बार नम: बोलते समय अपनी श्रद्धा अनुसार फूल, चावल के दाने, अष्टगंध, दूर्वा , चंदन या जो आपकी श्रद्धा हो वह चढ़ा सकते हैं । इस प्रकार से बेहद सरलता से आप गणेश भगवान का पूजन संपन्न कर पाएंगे ।
अंत में हाथ जोड़कर प्रणाम करें और दोनों कान पकड़कर किसी भी प्रकार की त्रुटि के लिए क्षमा प्रार्थना करते हुए भगवान गणेश से अपने इच्छित मनोकामना को पूर्ण करने की याचिका करें ।
विघ्नों के अधिपति, देवताओं के भी आराध्य, मोदक अर्थात लड्डूओं के प्रेमी, जगदम्बा पार्वती के पुत्र, हाथी के समान मुख व लम्बे पेट वाले, भगवान शिव के प्रिय पुत्र गणेश को मैं प्रणाम करता हूं ।
जनसामान्य में व्यापक लोकप्रियता रखने वाले इस अद्भुत देवता के गूणों की चर्चा करना लगभग असंभव है। वे गणों के अधिपति हैं तो देवताओं के सम्पूर्ण मण्डल में प्रथम पूज्य भी हैं। बुद्धि कौशल तथा चातुर्य को प्रदान करने वाले है तो कार्य के मार्ग में आने वाली बाधाओं को दूर करने वाले भी हैं। समस्त देव सेना और शिवगणों को पराजित करने वाले हेैं तो दूसरी ओर महाभारत जैसे ग्रंथ के लेखक भी हैं। ऐसे सर्वगुण संपन्न देवता की आराधना न सिर्फ भौतिक जीवन बल्कि आध्यात्मिक जीवन की भी समस्त विध मनोकामनाओं की पूर्ति करने में सक्षम हैं।
भगवान गणेश की आराधना या साधना उनके तीन स्वरूपों में की जाती है। उनके तीनों स्वरूप, राजसी तामसी तथा सात्विक स्वरूप साधक की इच्ठा तथा क्षमता के अनुसार कार्यसिद्धि प्रदान करते ही हैं।
भारतीय संस्कृति में जो परंपरा है उसके अनुसार तो प्रत्येक कार्य के प्रारंभ में गणपति का स्मरण किया ही जाता है। यदि नित्य न किया जाये तो भी गणेश चतुर्थी जैसे अवसरों पर तो गृहस्थों को उनका पूजन व ध्यान करना चाहिए।
व्यापार, सेल्स, मार्केटिंग, एडवर्टाइजिंग जैसे क्षेत्रों में जहां वाकपटुता तथा चातुर्य की नितांत आवश्यकता होती है, वहां गणपति साधना तथा ध्यान विशेष लाभप्रद होता है।भगवती लक्ष्मी को चंचला माना गया है। लक्ष्मी के साथ गणपति का पूजन लक्ष्मी को स्थायित्व प्रदान करता है। इसलिए आप व्यापारी बंधुओं के पास ऐसा संयुक्त चित्र लगा हुआ पायेंगे।
आगे की पंक्तियों में भगवान गणपति का एक स्तोत्र प्रस्तुत है। इस स्तोत्र का नित्य पाठ करना लाभप्रद होता है।
लम्बोदर नमस्तुभ्यं सततं मोदकप्रिय, निर्विनं में कुरू सर्व कार्येषु सर्वदा ।
त्वां विन शत्रु दलनेति च सुंदरेति भक्तप्रियेति शुभदेति फलप्रदेति ॥
विद्याप्रदेत्यघहरेति च ये स्तुवंति तेभ्यो गणेश वरदो भव नित्यमेवि ।
अनया पूजया सांगाय सपरिवाराय श्री गणपतिम समर्पयामि नमः ॥
इस स्तोत्र का पाठ कर गणपति को नमन करें ।
कलि काल में साधनाओं के विषय में कहा गया है कि :-
कलौ चण्डी विनायकौ
अर्थात कलियुग में चण्डी तथा गणपति साधनायें ज्यादा फलप्रद होंगी। गणपति साधना को प्रारंभिक तथा अत्यंत लाभप्रद साधनाओं में गिना जाता है। योगिक विचार में मूलाधार चक्र को कुण्डली का प्रारंभ माना जाता है तथा गणपति उसके स्वामी माने जाते हैं। साथ ही शिव शक्ति के पुत्र होने के कारण दोनों की संयुक्त कृपा प्रदान करते हैं।
यदि गणपति साधना करना चाहें तो आप आगे लिखी विधि के अनुसार करें।
गणपति साधना
गणपति साधना का यह विवरण सामान्य गृहस्थों के लिए है। इसे किसी भी जाति, लिंग,आयु का व्यक्ति कर सकता है।
मंत्र का जाप प्रतिदिन निश्चित संख्या या समय तक करना चाहिये ।
माला की व्यवस्था हो सके तो माला से तथा अभाव में किसी भी गणनायोग्य वस्तु से गणना कर सकते हैं ।
ऐसा न कर सकें तो एक समयावधि निश्चित समयावधि जैसे पांच, दस, पंद्रह मिनट, आधा या एक घंटा अपनी क्षमता के अनुसार निश्चित कर लें ।
इस प्रकार १, ३, ७, ९, ११, १६, २१, ३३, या ५१ दिनों तक करें। यदि किसी दिन जाप न कर पायें तो साधना खण्डित मानी जायेगी । अगले दिन से पुनः प्रारंभ करना पडेगा। इसलिये दिनों की संख्या का चुनाव अपनी क्षमता के अनुसार ही करें। महिलायें रजस्वला होने पर जाप छोडकर उस अवधि के बाद पुनः जाप कर सकती हैं। इस अवस्था में साधना खण्डित नही मानी जायेगी।
यदि संभव हो तो प्रतिदिन निश्चित समय पर ही बैठने का प्रयास करें ।
जप करते समय दीपक जलता रहना चाहिये ।
साफ वस्त्र पहनकर स्नानादि करके जाप करें । पूर्व की ओर देखते हुए बैठें। सामने गणपति का चित्र, मूर्ति या यंत्र रखें।
गणपति मंत्र
॥ ऊं गं गणेश्वराय गं नमः ॥
वे साधक जो माता गायत्री के भक्त हैं वे गणेश गायत्री मंत्र का जाप उपरोक्त मंत्र के स्थान पर कर सकते हैं जो उनके लिए ज्यादा लाभप्रद होगा।
साधना लक्ष्य प्राप्ति की सहायक क्रिया है। पुरूषार्थ के साथ-साथ साधना भी हो तो इष्ट देवता की शक्तियां मार्ग की बाधाओं को दूर करने में सहायक होती हैं। जिससे सफलता की संभावनायें बढ जाती हैं।