8 सितंबर 2025

बगलामुखी ब्रह्मास्त्र माला मंत्र

  बगलामुखी ब्रह्मास्त्र माला मंत्र





ॐ नमो भगवति चामुण्डे नरकंक गृध्रोलूक परिवार सहिते श्मशानप्रिये नररुधिरमांस चरु भोजन प्रिये ! सिद्ध विद्याधर वृन्द वंदित चरणे बृह्मेशविष्णु वरुण कुबेर भैरवी भैरव प्रिये इन्द्रक्रोध विनिर्गत शरीरे द्वादशादित्य चण्डप्रभे अस्थि मुण्ड कपाल मालाभरणे शीघ्रं दक्षिण दिशि आगच्छ आगच्छ, मानय मानय, नुद नुद, सर्व शत्रुणां मारय मारय, चूर्णय चूर्णय, आवेशय आवेशय, त्रुट त्रुट, त्रोटय त्रोटय, स्फुट स्फुट, स्फोटय स्फोटय, महाभूतान् जृम्भय जृम्भय, ब्रह्मराक्षसान उच्चाटय उच्चाटय, भूत प्रेत पिशाचान् मूर्च्छय मूर्च्छय, मम शत्रुन उच्चाटय उच्चाटय,  शत्रून चूर्णय चूर्णय, सत्यं कथय कथय, वृक्षेभ्यः संन्नाशय संन्नाशय अर्कं स्तंभय स्तंभय , गरुड पक्षपातेन विषं निर्विषं कुरु कुरु, लीलांगालयवृक्षेभ्यः परिपातय परिपातय, शैलकाननमहीं मर्दय मर्दय, मुखं उत्पाटय उत्पाटय, पात्रं पूरय पूरय, भूतभविष्यं यत्सर्व कथय कथय, कृन्त कृन्त, दह दह, पच पच, मथ मथ, प्रमथ प्रमथ, घर्घर घर्घर, ग्रासय ग्रासय, विद्रावय विद्रावय उच्चाटय उच्चाटय, विष्णुचक्रेण वरुणपाशेन इन्द्रवज्रेण ज्वरं नाशय नाशय, प्रविदं स्फोटय स्फोटय , सर्वशत्रून मम वशं कुरु कुरु, पातालं प्रत्यंतरिक्षं आकाशग्रहं आनय आनय, करालि विकरालि महाकालि, रुद्रशक्ते पूर्वदिशं निरोधय निरोधयपश्चिमदिशं स्तम्भय स्तम्भयदक्षिणदिशं निधय निधयउत्तरदिशं बंधय बंधय, ह्रां ह्रीं ॐ बंधय बंधय, ज्वालामालिनी स्तम्भिनी मोहिनि, मुकुट विचित्र कुण्डल नागादि वासुकी कृत हारभूषणे मेखला चन्द्रार्कहास प्रभंजने विद्युत्स्फुरित सकाश साट्टहास निलय निलय, हुं फट्, हुं फट् विजृंभित शरीरे सप्तद्वीप कृते ब्रह्माण्ड विस्तारित स्तन युगले असि मुसल परशु तोमर क्षुरिपाश हलेषु वीरान् शमय शमय, सहस्त्र बाहु परापरादिशक्ति विष्णु शरीरे, शंकर ह्रदयेश्वरी बगलामुखी ! सर्वदुष्टान् विनाशय विनाशय, हुं फट् स्वाहा ।

ॐ ह्लीं बगलामुखी ये केचनापकारिणः सन्ति, तेषां वाचं मुखं स्तम्भय स्तम्भय, जिह्वां कीलय कीलय, बुद्धिं विनाशय विनाशय, ह्रीं ॐ स्वाहा !

ॐ ह्रीं हिली हिली सर्व शत्रुणां वाचं मुखं पदं स्तम्भय , शत्रुजिह्वां कीलय, शत्रूणां दृष्टिमुष्टि गति मति दंत तालु जिह्वां बंधय बंधय, मारय मारय, शोषय शोषय हुं फट् स्वाहा ।

 महाविद्या बगलामुखी की कृपा प्रदान करता है । 

स्तोत्र है इसलिए वे भी कर सकते हैं जिन्होंने गुरु दीक्षा नहीं ली है । लेकिन वे नित्य 11 पाठ से ज्यादा ना करें । 

नित्य क्षमतानुसार 1,3,5,7,9,11,16,21,33,51,108 पाठ करें ।


सामने सरसों के तेल का दीपक लगा लें । 
रात्री काल बेहतर है । 
पीले रंग का आसन और वस्त्र  । 
सात्विक विद्या है । 
ब्रह्मचर्य का पालन करें । 
सात्विक आचार विचार व्यवहार रखें  । 
नशा और मांसाहार निषेध है । 
उत्तर या पूर्व दिशा की ओर देखते हुए करें । 
शत्रु बाधा निवारण, तथा सर्वविध रक्षा के लिए उपयोगी है । 
नवरात्रि मे ज्यादा लाभ प्रदायक है । 

विधि :-

पहले दिन हाथ मे जल लेकर इच्छा बोलेंगे और माता के चरणों मे छोड़ देंगे । 

गुरु बनाया हो तो एक माला गुरु मंत्र की करें । 
अगर गुरु न हो तो एक माला निम्नलिखित मंत्र की करें :
।। ॐ गुं  गुरुभ्यो नमः ।। 

गुरु मंत्र का जाप रुद्राक्ष या किसी भी माला से कर सकते हैं । 

उसके बाद "ह्लीं " [ hleem ] मंत्र का उच्चारण करते हुए अपने शरीर को सर से पाँव तक छू लेंगे और ऐसी भावना करेंगे कि देवी बगलामुखी आपके शरीर मे स्थापित हो रही हैं । 
इसके बाद पाठ प्रारंभ करें । 
पाठ की गिनती आप किसी भी चीज से कर सकते हैं , कागज पेंसिल पर भी कर सकते हैं । 

7 सितंबर 2025

पितृ स्तोत्र (गरुड पुराण)

पितृ स्तोत्र (गरुड पुराण)

अमूर्त्तानां च मूर्त्तानां पितृणां दीप्ततेजसाम

नमस्यामि सदा तेषां ध्यानिनां दिव्यचक्षुषाम !

इंद्रादीनां च नेतारो दक्षमारी चयोस्तथा !!

सप्तर्षीणां तथान्येषां तान नमस्यामि कामदान !

मन्वादीनां मुनींद्राणां सूर्य्यांचंद्रमसो तथा !!

तान नमस्यामि अहं सर्व्वान पितरश्च अर्णवेषु ये !

नक्षत्राणां ग्रहाणां च वायु अग्नि नभ तथा !!

द्यावा पृथ्वीव्योश्च तथा नमस्यामि कृतांजलि: !

देवर्षिणां ग्रहाणां च सर्वलोकनमस्कृतान !!

अभयस्य सदा दातृन नमस्येहं कृतांजलि:

नमो गणेभ्य: सप्तभ्यस्तथा लोकेषु सप्तसु ! !

स्वयंभुवे नमस्यामि ब्रम्हणे योग चक्षुषे !

सोमाधारान पितृगणान योगमूर्तिधरांस्तथा !!

नमस्यामि तथा सोमं पितरं जगतामहम !

अग्निरुपां तथैव अन्यान नमस्यामि पितृं अहं !!

अग्निसोममयं विश्वं यत एदतशेषत:

ये तु तेजसि ये चैते सोमसूर्य्याग्निमूर्तय:!!

जगत्स्वरुपिणश्चैव तथा ब्रह्मस्वरुपिण:

तेभ्यो अखिलेभ्यो योगिभ्य: पितृभ्यो यतमानसा: !

नमो नमो नमस्ते मे प्रसीदंतु स्वधाभुज: !!

आप इसका उच्चारण आडिओ मे यहाँ सुन सकते हैं । 
इसे सुनकर उच्चारण करने से धीरे धीरे धीरे गुरुकृपा से आपका उच्चारण स्पष्ट होता जाएगा :-

 

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अगर आपको संस्कृत में उच्चारण करने में दिक्कत हो तो आप इसका भावार्थ हिंदी में भी उच्चरित कर सकते हैं जो कि निम्नानुसार है


जो अमूर्त, अत्यन्त तेजस्वी, ध्यानी तथा दिव्यदृष्टि सम्पन्न हैं, उन पितरों को मैं सदा नमस्कार करता हूँ।


इन्द्र आदि देवताओं, दक्ष, मारीच, सप्तर्षियों तथा दूसरों के भी नायक हैं, सभी कामना की पूर्ति करने वाले उन पितरो को मैं प्रणाम करता हूँ।


मनु आदि राजर्षियों, मुनिश्वरों तथा सूर्य और चन्द्रमा के भी नायक समस्त पितरों को मैं जल और समुद्र में भी प्रणाम करता हूँ।


नक्षत्रों, ग्रहों, वायु, अग्नि, आकाश और द्युलोक तथा पृथ्वी के भी जो प्रमुख हैं, उन पितरों को मैं प्रणाम करता हूँ।


देवर्षियों के जन्मदाता, समस्त लोकों द्वारा वन्दित तथा सदा अक्षय फल के दाता, पितरों को मैं प्रणाम करता हूँ।


प्रजापति, कश्यप, सोम, वरूण तथा योगेश्वरों के रूप में स्थित पितरों को सदा प्रणाम करता हूँ।


सातों लोकों में स्थित सात पितृगणों को नमस्कार है। मैं योगदृष्टिसम्पन्न स्वयम्भू ब्रह्माजी को प्रणाम करता हूँ।


चन्द्रमा के आधार पर प्रतिष्ठित तथा योगमूर्तिधारी पितृगणों को मैं प्रणाम करता हूँ। 

सम्पूर्ण जगत् के पिता सोम को नमस्कार करता हूँ।

अग्निस्वरूप अन्य पितरों को मैं प्रणाम करता हूँ, क्योंकि यह सम्पूर्ण जगत् अग्नि और सोममय है।


जो पितर तेज में स्थित हैं, जो ये चन्द्रमा, सूर्य और अग्नि के रूप में दृष्टिगोचर होते हैं तथा जो जगत्स्वरूप एवं ब्रह्मस्वरूप हैं, उन सम्पूर्ण योगी पितरो को मैं एकाग्रचित्त होकर प्रणाम करता हूँ। 

समस्त पितरो को मैं बारम्बार नमस्कार करता हुआ उनकी कृपा का आकांक्षी हूं । 

वे स्वधाभोजी पितर मुझपर प्रसन्न हों। वह मुझ पर कृपालु हो और मेरे समस्त दोषों का प्रशमन करते हुए मुझे सर्व विध  अनुकूलता प्रदान करें .... 



विधि :-

एक थाली में भोजन तैयार करके रख ले तथा स्तोत्र का यथाशक्ति (1,3,7,9,11) पाठ करके किसी गाय को या किसी गरीब व्यक्ति को खिला दे । 


6 सितंबर 2025

चन्द्र ग्रहण :- देवराज इंद्रकृत सहस्राक्षरी लक्ष्मी स्तोत्र

 चन्द्र ग्रहण :- देवराज इंद्रकृत सहस्राक्षरी लक्ष्मी स्तोत्र





देवराज इंद्रकृत सहस्राक्षरी लक्ष्मी स्तोत्र अपने आप में अत्यंत ही प्रभावशाली तथा शीघ्र फलप्रदायक है.

यह स्तोत्र लक्ष्मी जी के यंत्र चित्र या मूर्ति के सामने करना चाहिए.

पहले लघु पूजन करें. तदुपरांत स्तोत्र का पाठ करें.

महालक्ष्मी पूजनः-


ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं महालक्ष्म्यै नमः गंधम समर्पयामि । (इत्र कुंकुम चढायें)

ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं महालक्ष्म्यै नमः पुष्पम समर्पयामि । (फूल चढायें )

ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं महालक्ष्म्यै नमः धूपम समर्पयामि । (अगरबत्ती दिखायें)

ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं महालक्ष्म्यै नमः दीपम समर्पयामि । (दीपक दिखायें )

ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं महालक्ष्म्यै नमः नैवेद्यम समर्पयामि । (प्रसाद चढायें )


क्षमतानुसार 1,3,5,7,9,11,21,51 या 108 बार सहस्राक्षरी स्तोत्र मंत्र का पाठ करेंः-


(हाथ में जल लेकर)विनियोगः-

ऊँ अस्य श्री सर्व महाविद्या महारात्रि गोपनीय मंत्र रहस्याति रहस्यमयी पराशक्ति श्री मदाद्या भगवती सिद्ध लक्ष्मी सहस्राक्षरी सहस्र रूपिणि महाविद्याया श्री इंद्र ऋषिं गायत्रयादि नाना छंदांसि नवकोटि शक्तिरूपा श्री मदाद्या भगवती सिद्ध लक्ष्मी देवता श्री मदाद्या भगवती सिद्ध लक्ष्मी प्रसादादखिलेष्टार्थ (यहाँ अपनी मनोकामना बोल देंगे ) जपे पाठे विनियोगः । (जल जमीन पर छोड़ दें )

अपने हाथ मे एक पुष्प रखें ।

एक पाठ पूरा हो जाने पर उसे देवी के चरणों मे चढ़ा दें और उनकी कृपा प्राप्ति की प्रार्थना करें ।.


स्तोत्र मंत्र :-

ऊँ ऐं ह्रीं श्रीं हसौं श्रीं ऐं ह्रीं क्लीं सौः सौः ऊँ ऐं ह्रीं क्लीं श्रीं जय जय महालक्ष्मी, जगदाद्ये,विजये सुरासुर त्रिभुवन निदाने दयांकुरे सर्व तेजो रूपिणी विरंचि संस्थिते, विधि वरदे सच्चिदानंदे विष्णु देहावृते महामोहिनी नित्य वरदान तत्परे महासुधाब्धि वासिनी महातेजो धारिणी सर्वाधारे सर्वकारण कारिणे अचिंत्य रूपे इंद्रादि सकल निर्जर सेविते सामगान गायन परिपूर्णोदय कारिणी विजये जयंति अपराजिते सर्व सुंदरि रक्तांशुके सूर्य कोटि संकाशे चंद्र कोटि सुशीतले अग्निकोटि दहनशीले यम कोटि वहनशीले ऊँकार नाद बिंदु रूपिणी निगमागम भाग्यदायिनी त्रिदश राज्य दायिनी सर्व स्त्री रत्न स्वरूपिणी दिव्य देहिनि निर्गुणे सगुणे सदसद रूप धारिणी सुर वरदे भक्त त्राण तत्परे बहु वरदे सहस्राक्षरे अयुताक्षरे सप्त कोटि लक्ष्मी रूपिणी अनेक लक्षलक्ष स्वरूपे अनंत कोटि ब्रहमाण्ड नायिके चतुर्विंशति मुनिजन संस्थिते चतुर्दश भुवन भाव विकारिणे गगन वाहिनी नाना मंत्र राज विराजिते सकल सुंदरी गण सेविते चरणारविंद्र महात्रिपुर सुंदरी कामेश दायिते करूणा रस कल्लोलिनी कल्पवृक्षादि स्थिते चिंतामणि द्वय मध्यावस्थिते मणिमंदिरे निवासिनी विष्णु वक्षस्थल कारिणे अजिते अमले अनुपम चरिते मुक्तिक्षेत्राधिष्ठायिनी प्रसीद प्रसीद सर्व मनोरथान पूरय पूरय सर्वारिष्टान छेदय छेदय सर्वग्रह पीडा ज्वराग्र भय विध्वंसय विध्वंसय सर्व त्रिभुवन जातं वशय वशय मोक्ष मार्गाणि दर्शय दर्शय ज्ञानमार्ग प्रकाशय प्रकाशय अज्ञान तमो नाशय नाशय धनधान्यादि वृद्धिं कुरूकुरू सर्व कल्याणानि कल्पय कल्पय माम रक्ष रक्ष सर्वापदभ्यो निस्तारय निस्तारय वज्र शरीरं साधय साधय ह्रीं सहस्राक्षरी सिद्ध लक्ष्मी महाविद्यायै नमः ।


इसे आप चन्द्र ग्रहण/शरद पूर्णिमा/दीपावली/पूर्णिमा/ या किसी भी दिन कर सकते हैं । 

चन्द्र ग्रहण : आर्थिक लाभ हेतु शाबर मंत्र

 आर्थिक लाभ हेतु शाबर मंत्र 

शाबर मंत्र सामान्य जन की भाषा में लिखे हुए मंत्र होते हैं और उसमें व्याकरण की त्रुटि या शब्दों का अर्थ निकालने का प्रयास नहीं करना चाहिए और वे जैसे हैं वैसे ही पाठ कर लेना चाहिए ।
इसमें अलग-अलग स्रोतों के हिसाब से शब्दों में फर्क पड़ सकता है जो कि अलग-अलग साधकों के द्वारा अपने ढंग से प्रस्तुत किए जाते हैं लेकिन सभी सुखद परिणाम देते हैं।
पढ़ने में सरल होते हैं इसलिए कोई भी व्यक्ति से कर सकता है ।
इन मंत्रों का प्रयोग पुरुष या स्त्री कोई भी कर सकता है ।

मंत्र

ॐ नमो आदेश गुरु को |
नमो सिद्ध गणपति प्रसादात विघ्न हर्तुम गणपत गणपत वसो मसाण |
जो फल चाहूं सो फल आण , पञ्च लाडूँ , सिर सिन्दूर , रिद्धि सिद्धि आण |
गौरी का पुत्र सिंहासन बैठा |
राजा काम्पै प्रजा काम्पै दृष्टे राजा सिम चाम्पे| पञ्च कोष पूर्व पश्चिम से आण उत्तर से आण दक्षिण से आण |
इतनी कर रिद्धि सिद्धि मेरे घर द्वार आण|
राजा प्रजा अभी मेरो पड़े पाँव न पड़े तो लाजे मैया गौरी |
जो मै देखूं गणेश बाला कर मंत्र का सत की फट फट स्वाहा |


विधि

भोजपत्र पर इस मंत्र को लिख कर उसके सामने जाप करें
ग्रहण काल मे 108 बार जाप करें । ज्यादा कर पाएँ तो और अच्छा । 
जाप के समय गुग्गुल का धुप जलता रहे तो अच्छा है.
जाप के बाद ताबीज में भरकर पहन लें या धन रखने के स्थान में रख लें.
दूकान हो तो वहां गल्ले में भी रख सकते हैं.

चन्द्र ग्रहण में गुरु साधना

   



|| ॐ गुं गुरुभ्यो नमः ||

  • चन्द्र ग्रहण में गुरु साधना करनी चाहिये.
  • अप्सरा साधना, लक्ष्मी साधना के लिये यह सबसे श्रेष्ठ मुहुर्त होता है.
  • सम्मोहन/वशीकरण साधना के लिये यह उपयुक्त समय होता है.

ग्रहण काल में किये गये मंत्र जाप का १००० गुना फ़ल मिलता है.

भगवती लक्ष्मी का बीज मन्त्र



भूलोक के पालन कर्ता हैं भगवान् विष्णु और उनकी शक्ति हैं महामाया महालक्ष्मी ....
इस संसार में जो भी चंचलता है अर्थात गति है उसके मूल में वे ही हैं.....
उनके अभाव में गृहस्थ जीवन अधूरा अपूर्ण अभावयुक्त और अभिशापित है....
लक्ष्मी की कृपा के बिना सुखद गृहस्थ जीवन बेहद कठिन है...............

भगवती लक्ष्मी का बीज मन्त्र है:-
॥ श्रीं ॥
shreem


.
गुलाबी या लाल रंग के वस्त्र तथा आसन का प्रयोग करें.
न हों तो कोई भी साफ धुला वस्त्र पहन कर बैठें.
अगरबत्ती इत्र आदि से पूजा स्थल को सुगन्धित करें.
विवाहित हों तो पत्नी सहित बैठें तो और लाभ मिलेगा.
ग्रहण काल मे 108 माला या यथा शक्ति जाप करें.
क्षमता हो तो तेल/घी का दीपक लगायें ।

चंद्रग्रहण : पति से संबंध अनुकूल बनाने का मंत्र

 

चंद्रग्रहण : पति से संबंध अनुकूल बनाने का मंत्र

यदि आपका पति आपसे विरक्त हो गया हो लगातार झगड़ा होता रहता हो  बेवजह दूरियां बन गई हो तो इस साधना से अनुकूलता मिलेगी |



विधि :-
कामिया सिन्दूर मिल जाये तो उसे सामने रख लें.
ना मिले तो जिस कुमकुम से आप बिंदी लगाती हैं वह ...... या फिर स्टिकर बिंदी का प्रयोग करती हैं तो स्टीकर बिंदी के पैकेट को अपने सामने लाल कपड़े में रख लेंगे । जाप करने के बाद उस लाल कपड़े में लपेटकर रख लेंगे अगले दिन फिर उसे खोल कर जाप करना है । यदि लाल कपडे में रखने में दिक्कत हो तो ऐसे भी पूजा स्थान में रखकर कर सकते हैं ,. 

अगर आपका कोई गुरु हो या किसी देवता को गुरु मानते हो तो उनके मंत्र का तीन बार जाप कर लें
यदि गुरु नहीं हो तो निम्नलिखित गुरु मंत्र का 3 बार जाप कर ले
ॐ श्री गुरु मण्डलाय नमः

इसके बाद अपने दाएं हाथ में एक चम्मच पानी रख लें और अपनी इच्छा (अर्थात मेरा और मेरे पति के बीच में संबंध अच्छा बना रहे ) ऐसी भावना करके उस जल को जमीन पर छोड़ देंगे

उसके बाद निम्नलिखित मंत्र का जाप करेंगे

"हथेली में हनुमन्त बसै, भैरु बसे कपार।

नरसिंह की मोहिनी, मोहे सब संसार।

मोहन रे मोहन्ता वीर, सब वीरन में तेरा सीर।

सबकी नजर बाँध दे, तेल सिन्दूर चढ़ाऊँ तुझे।

तेल सिन्दूर कहाँ से आया ?

कैलास-पर्वत से आया।

कौन लाया, अञ्जनी का हनुमन्त,गौरी का गनेश लाया।

काला, गोरा, तोतला-तीनों बसे कपार।

बिन्दा तेल सिन्दूर का, दुश्मन गया पाताल।

दुहाई कमिया सिन्दूर की, हमें देख शीतल हो जाए भरतार ।

सत्य नाम, आदेश गुरु की।


7 सितंबर को पूर्णिमा भी है चंद्र ग्रहण भी है उस दिन भी आप इसको १०८ बार या जितनी आपकी क्षमता हो उतनी बार कर सकते हैं . उसके बाद अगली पूर्णिमा तक इसे नित्य कम से कम ११ बार करें . 

इसके आलावा आप निम्नलिखित समय में भी इस कर सकते हैं ;-


.....1....
इस मन्त्र को रोज 11 बार जाप होलिका दहन की रात्रि से प्रारंभ कर रामनवमी तक करें ।

हनुमान जयंती वाले दिन हनुमान मंदिर में एक नारियल और 21 रुपये या जितनी आपकी शक्ति हो उतना चढ़ा दें ।

हनुमान जयंती के बाद किसी भी दिन से इसका टीका [बिंदी] लगाकर पति के पास जाएँ. मन में हमेशा भाव रखें कि सब अच्छा हो जाएगा ।

...,........2.....,
नित्य 108 जाप रोज  पूरी नवरात्री में करें . आखिरी दिन हनुमान मंदिर में एक नारियल और 21 रुपये या जितनी आपकी शक्ति हो उतना चढ़ा दें ।

इसका टीका [बिंदी] लगाकर पति के पास जाएँ. मन में हमेशा भाव रखें कि सब अच्छा हो जाएगा ।

.,........3......

यदि होली,नवरात्रि में ना कर पाएं तो किसी भी पूर्णिमा से अगली पूर्णिमा तक रोज 11 बार जाप कर सकते हैं। आखिरी दिन हनुमान मंदिर में एक नारियल और 21 रुपये या जितनी आपकी शक्ति हो उतना चढ़ा दें ।
बिंदी या कुमकुम रखने में दिक्कत हो तो माता गौरी के भगवान शिव के साथ वाले स्वरूप का ध्यान करके जाप कर लेंगे । टीका या बिंदी लगाते समय इस मंत्र का जाप करते हुए टीका लगा लेंगे ।
.....,

ऐसा नित्य करें तो पति धीरे धीरे अनुकूल होने लगता है.

क्रोध करने से बचें और बेवजह का प्रलाप या बकवास ना करें

यह केवल आपके स्वयं के विवाहित पति के लिए काम करेगा .

प्रेमी के लिए काम नहीं करेगा .

पितरॊं अर्थात मृत पूर्वजॊं की कृपा

पितरॊं अर्थात मृत पूर्वजॊं की कृपा




श्राद्ध पक्ष में यथा सम्भव जाप करें ।

॥ ऊं सर्व पितरेभ्यो, मम सर्व शापं प्रशमय प्रशमय, सर्व दोषान निवारय निवारय, पूर्ण शान्तिम कुरु कुरु नमः ॥


पितृमोक्ष अमावस्या के दिन एक थाली में भोजन सजाकर सामने रखें।

108 बार जाप करें |

सभी ज्ञात अज्ञात पूर्वजों को याद करें , उनसे कृपा मागें |

ॐ शांति कहते हुए तीन बार पानी से थाली के चारों ओर गोल घेरा बनायें।

अपने पितरॊं को याद करके ईस थाली को गाय कॊ खिला दें।

 इससे पितरॊं अर्थात मृत पूर्वजॊं की कृपा आपकॊ प्राप्त होगी ।

3 सितंबर 2025

गजेन्द्र मोक्ष स्तोत्र

 गजेन्द्र मोक्ष स्तोत्र

यह स्तोत्र सर्वविध संकटों से मुक्ति की कामना के साथ भगवान की स्तुति में पढ़ा जा सकता है ।
पितृपक्ष में नित्य आप इस स्तोत्र को अपने पूर्वजों की शांति तथा मुक्ति के लिए पढ़ सकते हैं ।
सामान्यतः इसका पाठ सूर्योदय से पूर्व किया जाना श्रेष्ठ माना जाता है लेकिन आप चाहे तो इसे वीडियो देखकर बाद भी पढ़ सकते हैं ।
यदि आपको संस्कृत पढ़ने में दिक्कत हो तो आप उसका हिंदी अनुवाद भी पढ़ सकते हैं । वैसे संस्कृत का पाठ अगर आप दो-चार बार कर लेंगे तो आपको संस्कृत का पाठ भी आसान लगने लगेगा । इसके लिए आप प्रतिलिपि एफ एम पर जाकर मेरे चेनल मंत्र उच्चारण से इसका उच्चारण सुन सकते हैं ।. 
गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र की एक श्रेष्ठ विद्वान द्वारा हिंदी में लिखी हुई प्रतिकृति भी है जिसे अगले भाग में प्रकाशित करूंगा आप चाहे तो उसका पाठ भी कर सकते हैं यह सभी लगभग समान फलदाई है ।

श्री शुक उवाच –
श्री शुकदेव जी ने कहा

एवं व्यवसितो बुद्ध्या समाधाय मनो हृदि ।
जजाप परमं जाप्यं प्राग्जन्मन्यनुशिक्षितम ॥१॥

बुद्धि के द्वारा पिछले अध्याय में वर्णित रीति से निश्चय करके तथा मन को हृदय देश में स्थिर करके वह गजराज अपने पूर्व जन्म में सीखकर कण्ठस्थ किये हुए सर्वश्रेष्ठ एवं बार बार दोहराने योग्य निम्नलिखित स्तोत्र का मन ही मन पाठ करने लगा ॥१॥

गजेन्द्र उवाच
गजराज ने कहा –

ऊं नमो भगवते तस्मै यत एतच्चिदात्मकम ।
पुरुषायादिबीजाय परेशायाभिधीमहि ॥१॥

जिनकी चेतना को पाकर ये जड शरीर और मन आदि भी चेतन की भांति व्यवहार करने लगते हैं, ‘ओम’ शब्द के द्वारा लक्षित तथा सम्पूर्ण शरीर में प्रकृति एवं पुरुष रूप से प्रविष्ट हुए उन सर्व समर्थ परमेश्वर को मन ही मन प्रणाम है ॥२॥

यस्मिन्निदं यतश्चेदं येनेदं य इदं स्वयं ।
योस्मात्परस्माच्च परस्तं प्रपद्ये स्वयम्भुवम ॥३॥

वह, जिनके सहारे यह विश्व टिका है, जिनसे यह निकला है , जिन्होने इसकी रचना की है और जो स्वयं ही इसके रूप में प्रकट हैं – फिर भी जो इस दृश्य जगत से एवं इसकी कारणभूता प्रकृति से सर्वथा परे (विलक्षण ) एवं श्रेष्ठ हैं – उन स्वयंभू अर्थात अपने आप – बिना किसी कारण के – बने हुए भगवान की मैं शरण लेता हूं ॥३॥

यः स्वात्मनीदं निजमाययार्पितं क्वचिद्विभातं क्व च तत्तिरोहितम ।
अविद्धदृक साक्ष्युभयं तदीक्षते स आत्म मूलोsवत् मां परात्परः ॥४॥


वे प्रभु अपने संकल्प शक्ति के द्वारा अपने ही स्वरूप में रचे हुए हैं । सृष्टिकाल में प्रकट और प्रलयकाल में अप्रकट रहने वाले तथा इस शास्त्र प्रसिद्ध कार्य कारण रूप जगत को जो अकुण्ठित दृष्टि होने के कारण साक्षी रूप से देखते रहते हैं अर्थात उनसे लिप्त नही होते, वे चक्षु आदि प्रकाशकों के भी परम प्रकाशक अर्थात जो नेत्रों को देखने की शक्ति प्रदान करते हैं ऐसे प्रभु मेरी रक्षा करें ॥४॥

कालेन पंचत्वमितेषु कृत्स्नशो लोकेषु पालेषु च सर्व हेतुषु ।
तमस्तदाsसीद गहनं गभीरं यस्तस्य पारेsभिविराजते विभुः ॥५॥


(जहां s लिखा है वहाँ मात्रा को थोड़ा लंबा खींचकर उच्चरित करना है दाsसीद का उच्चारण होगा दाआसीद )
प्रलयकाल मे समय के प्रवाह से सम्पूर्ण लोकों के एवं ब्रह्मादि लोकपालों के पंचभूत में प्रवेश कर जाने पर तथा पंचभूतों से लेकर महत्वपर्यंत सम्पूर्ण कारणों के उनकी परमकरुणारूप प्रकृति में लीन हो जाने पर उस समय दुर्ज्ञेय तथा अपार अंधकाररूप प्रकृति ही बच रही थी। उस अंधकार मे भी उससे परे अपने परम धाम में जो सर्वव्यापक भगवान सर्वत्र प्रकाशित रहते हैं ऐसे मेरे प्रभु मेरी रक्षा करें ॥५॥

न यस्य देवा ऋषयः पदं विदुर्जन्तुः पुनः कोsर्हति गन्तुमीरितुम ।
यथा नटस्याकृतिभिर्विचेष्टतोदुरत्ययानुक्रमणः स मावतु ॥६॥

नाटक मे भिन्न भिन्न रूपों में नाट्य करने वाले अभिनेता के वास्तविक स्वरूप को जिस प्रकार साधारण दर्शक नही जान पाते , उसी प्रकार सत्त्व प्रधान देवता तथा ऋषि भी उन दिव्य प्रभु के स्वरूप को नही जानते , फिर दूसरा साधारण जीव कैसे उसे जान अथवा वर्णन कर सकता है – वे दुर्लभ चरित्र वाले प्रभु मेरी रक्षा करें ॥६॥

दिदृक्षवो यस्य पदं सुमंगलम विमुक्त संगा मुनयः सुसाधवः ।
चरन्त्यलोकव्रतमव्रणं वने भूतत्मभूता सुहृदः स मे गतिः ॥७॥

वे प्रभु जो आसक्ति से सर्वदा छूटे हुए , सम्पूर्ण प्राणियों में आत्मबुद्धि रखने वाले , सबके अकारण हितकारी है । अत्यंत सरल स्वभाव वाले मुनिगण जिनके परम मंगलमय स्वरूप का साक्षात्कार करने की इच्छा से वन में रह कर अखण्ड ब्रह्मचार्य आदि अलौकिक व्रतों का पालन करते हैं , वे प्रभु ही मेरी गति हैं ॥७॥

न विद्यते यस्य न जन्म कर्म वा न नाम रूपे गुणदोष एव वा ।
तथापि लोकाप्ययाम्भवाय यः स्वमायया तान्युलाकमृच्छति ॥८॥

जो जन्म मृत्यु से परे हैं । जिनका हमारी तरह कर्मवश ना तो जन्म होता है और न जिनके द्वारा अहंकार प्रेरित कर्म ही होते हैं, जिनके निर्गुण स्वरूप का न तो कोई नाम है न रूप ही, फिर भी समयानुसार जगत की सृष्टि एवं प्रलय (संहार) के लिये स्वेच्छा से जन्म आदि को स्वीकार करते हैं ॥८॥

तस्मै नमः परेशाय ब्राह्मणेsनन्तशक्तये ।
अरूपायोरुरूपाय नम आश्चर्य कर्मणे ॥९॥

उन असीमित शक्ति से संपन्न परब्रह्म परमेश्वर को नमस्कार है । जो आकाररहित भी हैं और अनेको आकारवाले भी हैं ऐसे अद्भुत उन भगवान को नमस्कार है ॥९॥

नम: आत्म प्रदीपाय साक्षिणे परमात्मने ।
नमो गिरां विदूराय मनसश्चेतसामपि ॥१०॥

जिनके कृपा कटाक्ष से आत्मा प्रकाश प्राप्त होता है और जो सबके साक्षी हैं ऐसे परमात्मा को नमस्कार है । उन प्रभु को जो मन, वाणी एवं चित्तवृत्तियों से भी सर्वथा परे हैं, उनको मेरा नमस्कार है ॥१०॥

सत्त्वेन प्रतिलभ्याय नैष्कर्म्येण विपश्चिता ।
नमः केवल्यनाथाय निर्वाणसुखसंविदे ॥११॥

विवेकी पुरुष के द्वारा जो सात्विक आचार विचार और वह संयुक्त है और वैसा ही आचरण करके उस परम मोक्ष सुख की अनुभूति को प्राप्त कर पाता है उसी अनुभूति के साक्षात रूप उस प्रभु को नमस्कार है ॥११॥

नमः शान्ताय घोराय मूढाय गुण धर्मिणे ।
निर्विशेषाय साम्याय नमो ज्ञानघनाय च ॥१२॥

सत्त्वगुण को स्वीकार करके शान्त , रजोगुण को स्वीकार करके घोर एवं तमोगुण को स्वीकार करके मूढ से प्रतीत होने वाले, तीनों अवस्थाओं में किसी भी प्रकार के भेद से रहित, सदा समभाव से स्थित ज्ञान के पूंजीभूत स्वरूप प्रभु को नमस्कार है ॥१२॥

क्षेत्रज्ञाय नमस्तुभ्यं सर्वाध्यक्षाय साक्षिणे ।
पुरुषायात्ममूलय मूलप्रकृतये नमः ॥१३॥

क्षेत्र अर्थात इस संपूर्ण ब्रह्मांड में स्थित चराचर विंडो के स्वामी और उनकी गतिविधियों को साक्षी रूप से देखते रहने वाले मूल पुरुष स्वरूप और मूल प्रकृति स्वरूप प्रभु को मैं नमस्कार करता हूं ॥१३॥

सर्वेन्द्रियगुणद्रष्ट्रे सर्वप्रत्ययहेतवे ।
असताच्छाययोक्ताय सदाभासय ते नमः ॥१४॥

सम्पूर्ण इन्द्रियों एवं उनके विषयों के ज्ञाता, समस्त प्रतीतियों के कारण रूप, सम्पूर्ण जड-प्रपंच एवं सम्पूर्ण विषयों में विराजमान रहने वाले और अपना आभास देने वाले आपको नमस्कार है ॥१४॥

नमो नमस्ते खिल कारणाय निष्कारणायद्भुत कारणाय ।
सर्वागमान्मायमहार्णवाय नमोपवर्गाय परायणाय ॥१५॥

वे प्रभु जो सबके कारण हैं किंतु स्वयं कारण रहित हैं । जो कारण होने पर भी परिणाम रहित होने के कारण, अन्य कारणों से विलक्षण हैं इसलिए आपको बारम्बार नमस्कार है । सम्पूर्ण आगमों, आम्नायो के परम तात्पर्य भगवान को नमस्कार है ॥१५॥ ॥

गुणारणिच्छन्न चिदूष्मपाय तत्क्षोभविस्फूर्जित मान्साय ।
नैष्कर्म्यभावेन विवर्जितागम स्वयंप्रकाशाय नमस्करोमि ॥१६॥

जो त्रिगुणरूप काष्ठों में छिपे हुए ज्ञानरूप अग्नि हैं, उक्त गुणों में हलचल होने पर जिनके मन में सृष्टि रचने की बाह्य वृत्ति जागृत हो उठती है तथा आत्म तत्त्व की भावना के द्वारा ज्ञानी महात्माओं में जो स्वयं प्रकाशित हो रहे हैं उन प्रभु को मैं नमस्कार करता हूँ ॥१।६॥

मादृक्प्रपन्नपशुपाशविमोक्षणाय मुक्ताय भूरिकरुणाय नमोsलयाय ।
स्वांशेन सर्वतनुभृन्मनसि प्रतीत प्रत्यग्दृशे भगवते बृहते नमस्ते ॥१७॥

मुझ जैसे शरणागत पशुतुल्य (अविद्याग्रस्त) जीव जो विभिन्न पाशों या बंधनों मे फंसे हुए हैं उन्हे सदा के लिये पूर्णरूप से काट देने वाले अत्याधिक दयालू नित्यमुक्त प्रभु को नमस्कार है । अपने अंश से संपूर्ण जीवों के मन में अन्तर्यामी रूप से प्रकट रहने वाले भगवन आप को नमस्कार है ॥१७॥

आत्मात्मजाप्तगृहवित्तजनेषु सक्तैर्दुष्प्रापणाय गुणसंगविवर्जिताय ।

मुक्तात्मभिः स्वहृदये परिभावितायज्ञानात्मने भगवते नम ईश्वराय ॥१८॥

शरीर, पुत्र, मित्र, घर, संपंत्ती एवं कुटुंबियों के मोह मे फंसे लोगों के द्वारा कठिनता से प्राप्त होने वाले तथा इन प्रपंचों से मुक्त पुरुषों के द्वारा अपने हृदय में निरन्तर चिन्तित ज्ञानस्वरूप , सर्वसमर्थ भगवान को नमस्कार है ॥१८॥

यं धर्मकामार्थविमुक्तिकामा भजन्त इष्टां गतिमाप्नुवन्ति ।
किं त्वाशिषो रात्यपि देहमव्ययं करोतु मेदभ्रदयो विमोक्षणम ॥१९॥

जिन्हे धर्म, काम भोग, धन तथा मोक्ष की कामना से भजने वाले लोग अपनी मनचाही गति पा लेते हैं अपितु जो उन्हे अन्य प्रकार के भोग एवं अविनाशी देह भी देते हैं वे अतिशय दयालु प्रभु मुझे इस विपत्ती से सदा के लिये उबार लें ॥१९॥

एकान्तिनो यस्य न कंचनार्थ वांछन्ति ये वै भगवत्प्रपन्नाः ।
अत्यद्भुतं तच्चरितं सुमंगलं गायन्त आनन्न्द समुद्रमग्नाः ॥२०॥

जिनके अनन्य भक्त -जो वस्तुतः एकमात्र उन भगवान के ही शरण है-धर्म , अर्थ आदि किसी भी पदार्थ को नही चाह्ते, अपितु उन्ही के परम मंगलमय एवं अत्यन्त विलक्षण चरित्रों का गान करते हुए आनन्द के समुद्र में गोते लगाते रहते हैं ॥२०॥

तमक्षरं ब्रह्म परं परेशमव्यक्तमाध्यात्मिकयोगगम्यम ।
अतीन्द्रियं सूक्षममिवातिदूरमनन्तमाद्यं परिपूर्णमीडे ॥२१॥

उन अविनाशी, सर्वव्यापक, सर्वश्रेष्ठ, ब्रह्मादि के भी नियामक, अभक्तों के लिये प्रकट होने पर भी भक्तियोग द्वारा प्राप्त करने योग्य, अत्यन्त निकट होने पर भी माया के आवरण के कारण अत्यन्त दूर प्रतीत होने वाले , इन्द्रियों के द्वारा अगम्य तथा अत्यन्त दुर्विज्ञेय, अन्तरहित किंतु सबके आदिकारण एवं सब ओर से परिपूर्ण उन भगवान की मैं स्तुति करता हूँ ॥२१॥

यस्य ब्रह्मादयो देवा वेदा लोकाश्चराचराः ।
नामरूपविभेदेन फल्ग्व्या च कलया कृताः ॥२२॥

इस प्रकृति में दिखाई देने वाले ब्रह्मादि समस्त देवता, चारों वेद तथा संपूर्ण चराचर जीव नाम और आकृति भेद से जिनके अत्यन्त क्षुद्र अंश के द्वारा रचे गये हैं ॥२२॥

यथार्चिषोग्नेः सवितुर्गभस्तयो निर्यान्ति संयान्त्यसकृत स्वरोचिषः ।
तथा यतोयं गुणसंप्रवाहोबुद्धिर्मनः खानि शरीरसर्गाः ॥२३॥

जिस प्रकार प्रज्ज्वलित अग्नि से लपटें तथा सूर्य से किरणें बार बार निकलती है और पुनः अपने कारण मे लीन हो जाती है उसी प्रकार बुद्धि, मन, इन्द्रियाँ और नाना योनियों के शरीर – यह गुणमय प्रपंच उसी परमात्मा से प्रकट होता है और पुनः उन्ही में लीन हो जाता है ॥२३॥

स वै न देवासुरमर्त्यतिर्यंग न स्त्री न षण्डो न पुमान न जन्तुः ।
नायं गुणः कर्म न सन्न चासन निषेधशेषो जयतादशेषः ॥२४॥

वे भगवान न तो देवता हैं न असुर, न मनुष्य हैं न तिर्यक (मनुष्य से नीची – पशु , पक्षी आदि किसी) योनि के प्राणी है । न वे स्त्री हैं न पुरुष और न नपुंसक ही हैं । न वे ऐसे कोई जीव हैं, जिनका इन तीनों ही श्रेणियों में समावेश हो सके । न वे गुण हैं न कर्म, न कार्य हैं न तो कारण ही । सबका निषेध हो जाने पर जो कुछ बच रहता है, वही उनका स्वरूप है और वे ही सब कुछ है । ॥२४॥

जिजीविषे नाहमिहामुया किमन्तर्बहिश्चावृतयेभयोन्या ।
इच्छामि कालेन न यस्य विप्लवस्तस्यात्मलोकावरणस्य मोक्षम ॥२५॥

मैं इस ग्राह के चंगुल से छूट कर जीवित नही रहना चाहता; क्योंकि भीतर और बाहर – सब ओर से अज्ञान से ढके हुए इस हाथी के शरीर से मुझे क्या लेना है । मैं तो आत्मा के प्रकाश को ढक देने वाले उस अज्ञान की निवृत्ति चाहता हूँ, जिसका कालक्रम से अपने आप नाश नही होता , अपितु भगवान की दया से अथवा ज्ञान के उदय से होता है ॥२५॥

सोsहं विश्वसृजं विश्वमविश्वं विश्ववेदसम ।
विश्वात्मानमजं ब्रह्म प्रणतोस्मि परं पदम ॥२६॥

इस प्रकार मोक्ष का अभिलाषी मैं विश्व के रचियता, स्वयं विश्व के रूप में प्रकट तथा विश्व से सर्वथा परे, विश्व को खिलौना बनाकर खेलने वाले, विश्व में आत्मरूप से व्याप्त , अजन्मा, सर्वव्यापक एवं प्राप्त्य वस्तुओं में सर्वश्रेष्ठ श्री भगवान को प्रणाम करता हुआ उनकी शरण में हूँ ॥२६॥

योगरन्धित कर्माणो हृदि योगविभाविते ।
योगिनो यं प्रपश्यन्ति योगेशं तं नतोsस्म्यहम ॥२७॥

जिन्होने भगवद्भक्ति रूप योग के द्वारा कर्मों को जला डाला है, वे योगी लोग उसी योग के द्वारा शुद्ध किये हुए अपने हृदय कमल में जिन्हे प्रकट हुआ देखते हैं उन योगेश्वर भगवान को मैं नमस्कार करता हूँ ॥२७॥

नमो नमस्तुभ्यमसह्यवेगशक्तित्रयायाखिलधीगुणाय ।
प्रपन्नपालाय दुरन्तशक्तयेकदिन्द्रियाणामनवाप्यवर्त्मने ॥२८॥

जिनकी त्रिगुणात्मक (सत्त्व-रज-तमरूप ) शक्तियों का रागरूप वेग असह्य है, जो सम्पूर्ण इन्द्रियों के विषयरूप में प्रतीत हो रहे हैं, अर्थात जिनकी इन्द्रियाँ विषयों के भोग में ही रची पची रहती हैं-ऐसे लोगों को जिस प्रभु का मार्ग भी मिलना असंभव है, उन शरणागतरक्षक एवं अपारशक्तिशाली आपको बार बार नमस्कार है ॥२८॥

नायं वेद स्वमात्मानं यच्छ्क्त्याहंधिया हतम ।
तं दुरत्ययमाहात्म्यं भगवन्तमितोsस्म्यहम ॥२९॥

जिनकी अविद्या नामक शक्ति के कार्यरूप अहंकार से ढंके हुए अपने स्वरूप को यह जीव जान नही पाता, उन अपार महिमा वाले भगवान की मैं शरण मे आया हूँ ॥२९॥

श्री शुकदेव उवाच –

श्री शुकदेवजी ने कहा –

एवं गजेन्द्रमुपवर्णितनिर्विशेषं ब्रह्मादयो विविधलिंगभिदाभिमानाः ।
नैते यदोपससृपुर्निखिलात्मकत्वाततत्राखिलामर्मयो हरिराविरासीत ॥३०॥

इस प्रकार से भगवान के भेदरहित निराकार स्वरूप का वर्णन करने वाले उस गजराज के समीप ब्रह्मा आदि कोई भी देवता नही आये, क्योंकि वे भिन्न भिन्न प्रकार के विशिष्ट विग्रहों को ही अपना स्वरूप मानते हैं, तब सक्षात श्री हरि- जो सबके आत्मा होने के कारण सर्वदेवस्वरूप हैं-वहाँ प्रकट हो गये ॥३०॥

तं तद्वदार्त्तमुपलभ्य जगन्निवासः स्तोत्रं निशम्य दिविजैः सह संस्तुवद्भि : ।
छन्दोमयेन गरुडेन समुह्यमान श्चक्रायुधोsभ्यगमदाशु यतो गजेन्द्रः ॥३१॥

उपर्युक्त गजराज को उस प्रकार दुःखी देख कर तथा उसके द्वारा पढी हुई सुंदर स्तुति को सुन कर सुदर्शनचक्रधारी जगदाधार भगवान इच्छानुरूप वेग वाले गरुड जी की पीठ पर सवार होकर स्तवन करते हुए देवताओं के साथ तत्काल उस स्थान पर पहुँच गये जहाँ वह हाथी था ।

सोsन्तस्सरस्युरुबलेन गृहीत आर्त्तो दृष्ट्वा गरुत्मति हरि ख उपात्तचक्रम ।

उत्क्षिप्य साम्बुजकरं गिरमाह कृच्छा न्नारायण्खिलगुरो भगवान नम्स्ते ॥३२॥

सरोवर के भीतर महाबली ग्राह के द्वारा पकडे जाकर दुःखी हुए उस हाथी ने आकाश में गरुड की पीठ पर सवार चक्र उठाये हुए भगवान श्री हरि को देखकर अपनी सूँड को -जिसमें उसने (पूजा के लिये) कमल का एक फूल ले रक्खा था-ऊपर उठाया और बडी ही कठिनाई से “सर्वपूज्य भगवान नारायण आपको प्रणाम है” यह वाक्य कहा ॥३२॥

तं वीक्ष्य पीडितमजः सहसावतीर्य सग्राहमाशु सरसः कृपयोज्जहार ।
ग्राहाद विपाटितमुखादरिणा गजेन्द्रं सम्पश्यतां हरिरमूमुचदुस्त्रियाणाम ॥३३॥

उसे पीडित देख कर अजन्मा श्री हरि एकाएक गरुड को छोडकर नीचे झील पर उतर आये । वे दया से प्रेरित हो ग्राहसहित उस गजराज को तत्काल झील से बाहर निकाल लाये और देवताओं के देखते देखते चक्र से मुँह चीर कर उसके चंगुल से हाथी को उबार लिया ॥३३॥




अभूतपूर्व पितृ दोष शांति प्रयोग, सदगुरुदेव डॉ Narayan Dutt Shrimali Ji

  

2 सितंबर 2025

पितृ स्तोत्र (गरुड पुराण)

 पितृ स्तोत्र (गरुड पुराण)

अमूर्त्तानां च मूर्त्तानां पितृणां दीप्ततेजसाम

नमस्यामि सदा तेषां ध्यानिनां दिव्यचक्षुषाम !

इंद्रादीनां च नेतारो दक्षमारी चयोस्तथा !!

सप्तर्षीणां तथान्येषां तान नमस्यामि कामदान !

मन्वादीनां मुनींद्राणां सूर्य्यांचंद्रमसो तथा !!

तान नमस्यामि अहं सर्व्वान पितरश्च अर्णवेषु ये !

नक्षत्राणां ग्रहाणां च वायु अग्नि नभ तथा !!

द्यावा पृथ्वीव्योश्च तथा नमस्यामि कृतांजलि: !

देवर्षिणां ग्रहाणां च सर्वलोकनमस्कृतान !!

अभयस्य सदा दातृन नमस्येहं कृतांजलि:

नमो गणेभ्य: सप्तभ्यस्तथा लोकेषु सप्तसु ! !

स्वयंभुवे नमस्यामि ब्रम्हणे योग चक्षुषे !

सोमाधारान पितृगणान योगमूर्तिधरांस्तथा !!

नमस्यामि तथा सोमं पितरं जगतामहम !

अग्निरुपां तथैव अन्यान नमस्यामि पितृं अहं !!

अग्निसोममयं विश्वं यत एदतशेषत:

ये तु तेजसि ये चैते सोमसूर्य्याग्निमूर्तय:!!

जगत्स्वरुपिणश्चैव तथा ब्रह्मस्वरुपिण:

तेभ्यो अखिलेभ्यो योगिभ्य: पितृभ्यो यतमानसा: !

नमो नमो नमस्ते मे प्रसीदंतु स्वधाभुज: !!

आप इसका उच्चारण आडिओ मे यहाँ सुन सकते हैं । 
इसे सुनकर उच्चारण करने से धीरे धीरे धीरे गुरुकृपा से आपका उच्चारण स्पष्ट होता जाएगा :-

 

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अगर आपको संस्कृत में उच्चारण करने में दिक्कत हो तो आप इसका भावार्थ हिंदी में भी उच्चरित कर सकते हैं जो कि निम्नानुसार है


जो अमूर्त, अत्यन्त तेजस्वी, ध्यानी तथा दिव्यदृष्टि सम्पन्न हैं, उन पितरों को मैं सदा नमस्कार करता हूँ।


इन्द्र आदि देवताओं, दक्ष, मारीच, सप्तर्षियों तथा दूसरों के भी नायक हैं, सभी कामना की पूर्ति करने वाले उन पितरो को मैं प्रणाम करता हूँ।


मनु आदि राजर्षियों, मुनिश्वरों तथा सूर्य और चन्द्रमा के भी नायक समस्त पितरों को मैं जल और समुद्र में भी प्रणाम करता हूँ।


नक्षत्रों, ग्रहों, वायु, अग्नि, आकाश और द्युलोक तथा पृथ्वी के भी जो प्रमुख हैं, उन पितरों को मैं प्रणाम करता हूँ।


देवर्षियों के जन्मदाता, समस्त लोकों द्वारा वन्दित तथा सदा अक्षय फल के दाता, पितरों को मैं प्रणाम करता हूँ।


प्रजापति, कश्यप, सोम, वरूण तथा योगेश्वरों के रूप में स्थित पितरों को सदा प्रणाम करता हूँ।


सातों लोकों में स्थित सात पितृगणों को नमस्कार है। मैं योगदृष्टिसम्पन्न स्वयम्भू ब्रह्माजी को प्रणाम करता हूँ।


चन्द्रमा के आधार पर प्रतिष्ठित तथा योगमूर्तिधारी पितृगणों को मैं प्रणाम करता हूँ। 

सम्पूर्ण जगत् के पिता सोम को नमस्कार करता हूँ।

अग्निस्वरूप अन्य पितरों को मैं प्रणाम करता हूँ, क्योंकि यह सम्पूर्ण जगत् अग्नि और सोममय है।


जो पितर तेज में स्थित हैं, जो ये चन्द्रमा, सूर्य और अग्नि के रूप में दृष्टिगोचर होते हैं तथा जो जगत्स्वरूप एवं ब्रह्मस्वरूप हैं, उन सम्पूर्ण योगी पितरो को मैं एकाग्रचित्त होकर प्रणाम करता हूँ। 

समस्त पितरो को मैं बारम्बार नमस्कार करता हुआ उनकी कृपा का आकांक्षी हूं । 

वे स्वधाभोजी पितर मुझपर प्रसन्न हों। वह मुझ पर कृपालु हो और मेरे समस्त दोषों का प्रशमन करते हुए मुझे सर्व विध  अनुकूलता प्रदान करें .... 



विधि :-

एक थाली में भोजन तैयार करके रख ले तथा स्तोत्र का यथाशक्ति (1,3,7,9,11) पाठ करके किसी गाय को या किसी गरीब व्यक्ति को खिला दे । 


सरल पितृ पूजन

  पितृ पक्ष चल रहा है. सभी लोग विधि विधान से पूजन नहीं कर पते हैं .उनके लिए एक सरल विधि:-

|| ॐ सर्व पित्रेभ्यो नमः ||

  • आपके घर में जो भोजन बना हो उसे एक थाली में सजा ले.
  • उसको पूजा स्थान में अपने सामने रखकर इस मंत्र का १०८  बार जाप करें.
  • हाथ में पानी लेकर कहें " मेरे सभी ज्ञात अज्ञात पितरों की शांति हो " इसके बाद जल जमीन पर छोड़ दे.
  • अब उस थाली के भोजन को किसी गाय को या किसी गरीब भूखे को खिला दें. 


1 सितंबर 2025

सरल पितृ पूजन

   पितृ पक्ष चल रहा है. सभी लोग विधि विधान से पूजन नहीं कर पते हैं .उनके लिए एक सरल विधि:-

|| ॐ सर्व पित्रेभ्यो नमः ||

  • आपके घर में जो भोजन बना हो उसे एक थाली में सजा ले.
  • उसको पूजा स्थान में अपने सामने रखकर इस मंत्र का १०८  बार जाप करें.
  • हाथ में पानी लेकर कहें " मेरे सभी ज्ञात अज्ञात पितरों की शांति हो " इसके बाद जल जमीन पर छोड़ दे.
  • अब उस थाली के भोजन को किसी गाय को या किसी गरीब भूखे को खिला दें. 


गजेन्द्र मोक्ष स्तोत्र

गजेन्द्र मोक्ष स्तोत्र

यह स्तोत्र सर्वविध संकटों से मुक्ति की कामना के साथ भगवान की स्तुति में पढ़ा जा सकता है ।
पितृपक्ष में नित्य आप इस स्तोत्र को अपने पूर्वजों की शांति तथा मुक्ति के लिए पढ़ सकते हैं ।
सामान्यतः इसका पाठ सूर्योदय से पूर्व किया जाना श्रेष्ठ माना जाता है लेकिन आप चाहे तो इसे वीडियो देखकर बाद भी पढ़ सकते हैं ।
यदि आपको संस्कृत पढ़ने में दिक्कत हो तो आप उसका हिंदी अनुवाद भी पढ़ सकते हैं । वैसे संस्कृत का पाठ अगर आप दो-चार बार कर लेंगे तो आपको संस्कृत का पाठ भी आसान लगने लगेगा । इसके लिए आप प्रतिलिपि एफ एम पर जाकर मेरे चेनल मंत्र उच्चारण से इसका उच्चारण सुन सकते हैं ।. 
गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र की एक श्रेष्ठ विद्वान द्वारा हिंदी में लिखी हुई प्रतिकृति भी है जिसे अगले भाग में प्रकाशित करूंगा आप चाहे तो उसका पाठ भी कर सकते हैं यह सभी लगभग समान फलदाई है ।

श्री शुक उवाच –
श्री शुकदेव जी ने कहा

एवं व्यवसितो बुद्ध्या समाधाय मनो हृदि ।
जजाप परमं जाप्यं प्राग्जन्मन्यनुशिक्षितम ॥१॥

बुद्धि के द्वारा पिछले अध्याय में वर्णित रीति से निश्चय करके तथा मन को हृदय देश में स्थिर करके वह गजराज अपने पूर्व जन्म में सीखकर कण्ठस्थ किये हुए सर्वश्रेष्ठ एवं बार बार दोहराने योग्य निम्नलिखित स्तोत्र का मन ही मन पाठ करने लगा ॥१॥

गजेन्द्र उवाच
गजराज ने कहा –

ऊं नमो भगवते तस्मै यत एतच्चिदात्मकम ।
पुरुषायादिबीजाय परेशायाभिधीमहि ॥१॥

जिनकी चेतना को पाकर ये जड शरीर और मन आदि भी चेतन की भांति व्यवहार करने लगते हैं, ‘ओम’ शब्द के द्वारा लक्षित तथा सम्पूर्ण शरीर में प्रकृति एवं पुरुष रूप से प्रविष्ट हुए उन सर्व समर्थ परमेश्वर को मन ही मन प्रणाम है ॥२॥

यस्मिन्निदं यतश्चेदं येनेदं य इदं स्वयं ।
योस्मात्परस्माच्च परस्तं प्रपद्ये स्वयम्भुवम ॥३॥

वह, जिनके सहारे यह विश्व टिका है, जिनसे यह निकला है , जिन्होने इसकी रचना की है और जो स्वयं ही इसके रूप में प्रकट हैं – फिर भी जो इस दृश्य जगत से एवं इसकी कारणभूता प्रकृति से सर्वथा परे (विलक्षण ) एवं श्रेष्ठ हैं – उन स्वयंभू अर्थात अपने आप – बिना किसी कारण के – बने हुए भगवान की मैं शरण लेता हूं ॥३॥

यः स्वात्मनीदं निजमाययार्पितं क्वचिद्विभातं क्व च तत्तिरोहितम ।
अविद्धदृक साक्ष्युभयं तदीक्षते स आत्म मूलोsवत् मां परात्परः ॥४॥


वे प्रभु अपने संकल्प शक्ति के द्वारा अपने ही स्वरूप में रचे हुए हैं । सृष्टिकाल में प्रकट और प्रलयकाल में अप्रकट रहने वाले तथा इस शास्त्र प्रसिद्ध कार्य कारण रूप जगत को जो अकुण्ठित दृष्टि होने के कारण साक्षी रूप से देखते रहते हैं अर्थात उनसे लिप्त नही होते, वे चक्षु आदि प्रकाशकों के भी परम प्रकाशक अर्थात जो नेत्रों को देखने की शक्ति प्रदान करते हैं ऐसे प्रभु मेरी रक्षा करें ॥४॥

कालेन पंचत्वमितेषु कृत्स्नशो लोकेषु पालेषु च सर्व हेतुषु ।
तमस्तदाsसीद गहनं गभीरं यस्तस्य पारेsभिविराजते विभुः ॥५॥


(जहां s लिखा है वहाँ मात्रा को थोड़ा लंबा खींचकर उच्चरित करना है दाsसीद का उच्चारण होगा दाआसीद )
प्रलयकाल मे समय के प्रवाह से सम्पूर्ण लोकों के एवं ब्रह्मादि लोकपालों के पंचभूत में प्रवेश कर जाने पर तथा पंचभूतों से लेकर महत्वपर्यंत सम्पूर्ण कारणों के उनकी परमकरुणारूप प्रकृति में लीन हो जाने पर उस समय दुर्ज्ञेय तथा अपार अंधकाररूप प्रकृति ही बच रही थी। उस अंधकार मे भी उससे परे अपने परम धाम में जो सर्वव्यापक भगवान सर्वत्र प्रकाशित रहते हैं ऐसे मेरे प्रभु मेरी रक्षा करें ॥५॥

न यस्य देवा ऋषयः पदं विदुर्जन्तुः पुनः कोsर्हति गन्तुमीरितुम ।
यथा नटस्याकृतिभिर्विचेष्टतोदुरत्ययानुक्रमणः स मावतु ॥६॥

नाटक मे भिन्न भिन्न रूपों में नाट्य करने वाले अभिनेता के वास्तविक स्वरूप को जिस प्रकार साधारण दर्शक नही जान पाते , उसी प्रकार सत्त्व प्रधान देवता तथा ऋषि भी उन दिव्य प्रभु के स्वरूप को नही जानते , फिर दूसरा साधारण जीव कैसे उसे जान अथवा वर्णन कर सकता है – वे दुर्लभ चरित्र वाले प्रभु मेरी रक्षा करें ॥६॥

दिदृक्षवो यस्य पदं सुमंगलम विमुक्त संगा मुनयः सुसाधवः ।
चरन्त्यलोकव्रतमव्रणं वने भूतत्मभूता सुहृदः स मे गतिः ॥७॥

वे प्रभु जो आसक्ति से सर्वदा छूटे हुए , सम्पूर्ण प्राणियों में आत्मबुद्धि रखने वाले , सबके अकारण हितकारी है । अत्यंत सरल स्वभाव वाले मुनिगण जिनके परम मंगलमय स्वरूप का साक्षात्कार करने की इच्छा से वन में रह कर अखण्ड ब्रह्मचार्य आदि अलौकिक व्रतों का पालन करते हैं , वे प्रभु ही मेरी गति हैं ॥७॥

न विद्यते यस्य न जन्म कर्म वा न नाम रूपे गुणदोष एव वा ।
तथापि लोकाप्ययाम्भवाय यः स्वमायया तान्युलाकमृच्छति ॥८॥

जो जन्म मृत्यु से परे हैं । जिनका हमारी तरह कर्मवश ना तो जन्म होता है और न जिनके द्वारा अहंकार प्रेरित कर्म ही होते हैं, जिनके निर्गुण स्वरूप का न तो कोई नाम है न रूप ही, फिर भी समयानुसार जगत की सृष्टि एवं प्रलय (संहार) के लिये स्वेच्छा से जन्म आदि को स्वीकार करते हैं ॥८॥

तस्मै नमः परेशाय ब्राह्मणेsनन्तशक्तये ।
अरूपायोरुरूपाय नम आश्चर्य कर्मणे ॥९॥

उन असीमित शक्ति से संपन्न परब्रह्म परमेश्वर को नमस्कार है । जो आकाररहित भी हैं और अनेको आकारवाले भी हैं ऐसे अद्भुत उन भगवान को नमस्कार है ॥९॥

नम: आत्म प्रदीपाय साक्षिणे परमात्मने ।
नमो गिरां विदूराय मनसश्चेतसामपि ॥१०॥

जिनके कृपा कटाक्ष से आत्मा प्रकाश प्राप्त होता है और जो सबके साक्षी हैं ऐसे परमात्मा को नमस्कार है । उन प्रभु को जो मन, वाणी एवं चित्तवृत्तियों से भी सर्वथा परे हैं, उनको मेरा नमस्कार है ॥१०॥

सत्त्वेन प्रतिलभ्याय नैष्कर्म्येण विपश्चिता ।
नमः केवल्यनाथाय निर्वाणसुखसंविदे ॥११॥

विवेकी पुरुष के द्वारा जो सात्विक आचार विचार और वह संयुक्त है और वैसा ही आचरण करके उस परम मोक्ष सुख की अनुभूति को प्राप्त कर पाता है उसी अनुभूति के साक्षात रूप उस प्रभु को नमस्कार है ॥११॥

नमः शान्ताय घोराय मूढाय गुण धर्मिणे ।
निर्विशेषाय साम्याय नमो ज्ञानघनाय च ॥१२॥

सत्त्वगुण को स्वीकार करके शान्त , रजोगुण को स्वीकार करके घोर एवं तमोगुण को स्वीकार करके मूढ से प्रतीत होने वाले, तीनों अवस्थाओं में किसी भी प्रकार के भेद से रहित, सदा समभाव से स्थित ज्ञान के पूंजीभूत स्वरूप प्रभु को नमस्कार है ॥१२॥

क्षेत्रज्ञाय नमस्तुभ्यं सर्वाध्यक्षाय साक्षिणे ।
पुरुषायात्ममूलय मूलप्रकृतये नमः ॥१३॥

क्षेत्र अर्थात इस संपूर्ण ब्रह्मांड में स्थित चराचर विंडो के स्वामी और उनकी गतिविधियों को साक्षी रूप से देखते रहने वाले मूल पुरुष स्वरूप और मूल प्रकृति स्वरूप प्रभु को मैं नमस्कार करता हूं ॥१३॥

सर्वेन्द्रियगुणद्रष्ट्रे सर्वप्रत्ययहेतवे ।
असताच्छाययोक्ताय सदाभासय ते नमः ॥१४॥

सम्पूर्ण इन्द्रियों एवं उनके विषयों के ज्ञाता, समस्त प्रतीतियों के कारण रूप, सम्पूर्ण जड-प्रपंच एवं सम्पूर्ण विषयों में विराजमान रहने वाले और अपना आभास देने वाले आपको नमस्कार है ॥१४॥

नमो नमस्ते खिल कारणाय निष्कारणायद्भुत कारणाय ।
सर्वागमान्मायमहार्णवाय नमोपवर्गाय परायणाय ॥१५॥

वे प्रभु जो सबके कारण हैं किंतु स्वयं कारण रहित हैं । जो कारण होने पर भी परिणाम रहित होने के कारण, अन्य कारणों से विलक्षण हैं इसलिए आपको बारम्बार नमस्कार है । सम्पूर्ण आगमों, आम्नायो के परम तात्पर्य भगवान को नमस्कार है ॥१५॥ ॥

गुणारणिच्छन्न चिदूष्मपाय तत्क्षोभविस्फूर्जित मान्साय ।
नैष्कर्म्यभावेन विवर्जितागम स्वयंप्रकाशाय नमस्करोमि ॥१६॥

जो त्रिगुणरूप काष्ठों में छिपे हुए ज्ञानरूप अग्नि हैं, उक्त गुणों में हलचल होने पर जिनके मन में सृष्टि रचने की बाह्य वृत्ति जागृत हो उठती है तथा आत्म तत्त्व की भावना के द्वारा ज्ञानी महात्माओं में जो स्वयं प्रकाशित हो रहे हैं उन प्रभु को मैं नमस्कार करता हूँ ॥१।६॥

मादृक्प्रपन्नपशुपाशविमोक्षणाय मुक्ताय भूरिकरुणाय नमोsलयाय ।
स्वांशेन सर्वतनुभृन्मनसि प्रतीत प्रत्यग्दृशे भगवते बृहते नमस्ते ॥१७॥

मुझ जैसे शरणागत पशुतुल्य (अविद्याग्रस्त) जीव जो विभिन्न पाशों या बंधनों मे फंसे हुए हैं उन्हे सदा के लिये पूर्णरूप से काट देने वाले अत्याधिक दयालू नित्यमुक्त प्रभु को नमस्कार है । अपने अंश से संपूर्ण जीवों के मन में अन्तर्यामी रूप से प्रकट रहने वाले भगवन आप को नमस्कार है ॥१७॥

आत्मात्मजाप्तगृहवित्तजनेषु सक्तैर्दुष्प्रापणाय गुणसंगविवर्जिताय ।

मुक्तात्मभिः स्वहृदये परिभावितायज्ञानात्मने भगवते नम ईश्वराय ॥१८॥

शरीर, पुत्र, मित्र, घर, संपंत्ती एवं कुटुंबियों के मोह मे फंसे लोगों के द्वारा कठिनता से प्राप्त होने वाले तथा इन प्रपंचों से मुक्त पुरुषों के द्वारा अपने हृदय में निरन्तर चिन्तित ज्ञानस्वरूप , सर्वसमर्थ भगवान को नमस्कार है ॥१८॥

यं धर्मकामार्थविमुक्तिकामा भजन्त इष्टां गतिमाप्नुवन्ति ।
किं त्वाशिषो रात्यपि देहमव्ययं करोतु मेदभ्रदयो विमोक्षणम ॥१९॥

जिन्हे धर्म, काम भोग, धन तथा मोक्ष की कामना से भजने वाले लोग अपनी मनचाही गति पा लेते हैं अपितु जो उन्हे अन्य प्रकार के भोग एवं अविनाशी देह भी देते हैं वे अतिशय दयालु प्रभु मुझे इस विपत्ती से सदा के लिये उबार लें ॥१९॥

एकान्तिनो यस्य न कंचनार्थ वांछन्ति ये वै भगवत्प्रपन्नाः ।
अत्यद्भुतं तच्चरितं सुमंगलं गायन्त आनन्न्द समुद्रमग्नाः ॥२०॥

जिनके अनन्य भक्त -जो वस्तुतः एकमात्र उन भगवान के ही शरण है-धर्म , अर्थ आदि किसी भी पदार्थ को नही चाह्ते, अपितु उन्ही के परम मंगलमय एवं अत्यन्त विलक्षण चरित्रों का गान करते हुए आनन्द के समुद्र में गोते लगाते रहते हैं ॥२०॥

तमक्षरं ब्रह्म परं परेशमव्यक्तमाध्यात्मिकयोगगम्यम ।
अतीन्द्रियं सूक्षममिवातिदूरमनन्तमाद्यं परिपूर्णमीडे ॥२१॥

उन अविनाशी, सर्वव्यापक, सर्वश्रेष्ठ, ब्रह्मादि के भी नियामक, अभक्तों के लिये प्रकट होने पर भी भक्तियोग द्वारा प्राप्त करने योग्य, अत्यन्त निकट होने पर भी माया के आवरण के कारण अत्यन्त दूर प्रतीत होने वाले , इन्द्रियों के द्वारा अगम्य तथा अत्यन्त दुर्विज्ञेय, अन्तरहित किंतु सबके आदिकारण एवं सब ओर से परिपूर्ण उन भगवान की मैं स्तुति करता हूँ ॥२१॥

यस्य ब्रह्मादयो देवा वेदा लोकाश्चराचराः ।
नामरूपविभेदेन फल्ग्व्या च कलया कृताः ॥२२॥

इस प्रकृति में दिखाई देने वाले ब्रह्मादि समस्त देवता, चारों वेद तथा संपूर्ण चराचर जीव नाम और आकृति भेद से जिनके अत्यन्त क्षुद्र अंश के द्वारा रचे गये हैं ॥२२॥

यथार्चिषोग्नेः सवितुर्गभस्तयो निर्यान्ति संयान्त्यसकृत स्वरोचिषः ।
तथा यतोयं गुणसंप्रवाहोबुद्धिर्मनः खानि शरीरसर्गाः ॥२३॥

जिस प्रकार प्रज्ज्वलित अग्नि से लपटें तथा सूर्य से किरणें बार बार निकलती है और पुनः अपने कारण मे लीन हो जाती है उसी प्रकार बुद्धि, मन, इन्द्रियाँ और नाना योनियों के शरीर – यह गुणमय प्रपंच उसी परमात्मा से प्रकट होता है और पुनः उन्ही में लीन हो जाता है ॥२३॥

स वै न देवासुरमर्त्यतिर्यंग न स्त्री न षण्डो न पुमान न जन्तुः ।
नायं गुणः कर्म न सन्न चासन निषेधशेषो जयतादशेषः ॥२४॥

वे भगवान न तो देवता हैं न असुर, न मनुष्य हैं न तिर्यक (मनुष्य से नीची – पशु , पक्षी आदि किसी) योनि के प्राणी है । न वे स्त्री हैं न पुरुष और न नपुंसक ही हैं । न वे ऐसे कोई जीव हैं, जिनका इन तीनों ही श्रेणियों में समावेश हो सके । न वे गुण हैं न कर्म, न कार्य हैं न तो कारण ही । सबका निषेध हो जाने पर जो कुछ बच रहता है, वही उनका स्वरूप है और वे ही सब कुछ है । ॥२४॥

जिजीविषे नाहमिहामुया किमन्तर्बहिश्चावृतयेभयोन्या ।
इच्छामि कालेन न यस्य विप्लवस्तस्यात्मलोकावरणस्य मोक्षम ॥२५॥

मैं इस ग्राह के चंगुल से छूट कर जीवित नही रहना चाहता; क्योंकि भीतर और बाहर – सब ओर से अज्ञान से ढके हुए इस हाथी के शरीर से मुझे क्या लेना है । मैं तो आत्मा के प्रकाश को ढक देने वाले उस अज्ञान की निवृत्ति चाहता हूँ, जिसका कालक्रम से अपने आप नाश नही होता , अपितु भगवान की दया से अथवा ज्ञान के उदय से होता है ॥२५॥

सोsहं विश्वसृजं विश्वमविश्वं विश्ववेदसम ।
विश्वात्मानमजं ब्रह्म प्रणतोस्मि परं पदम ॥२६॥

इस प्रकार मोक्ष का अभिलाषी मैं विश्व के रचियता, स्वयं विश्व के रूप में प्रकट तथा विश्व से सर्वथा परे, विश्व को खिलौना बनाकर खेलने वाले, विश्व में आत्मरूप से व्याप्त , अजन्मा, सर्वव्यापक एवं प्राप्त्य वस्तुओं में सर्वश्रेष्ठ श्री भगवान को प्रणाम करता हुआ उनकी शरण में हूँ ॥२६॥

योगरन्धित कर्माणो हृदि योगविभाविते ।
योगिनो यं प्रपश्यन्ति योगेशं तं नतोsस्म्यहम ॥२७॥

जिन्होने भगवद्भक्ति रूप योग के द्वारा कर्मों को जला डाला है, वे योगी लोग उसी योग के द्वारा शुद्ध किये हुए अपने हृदय कमल में जिन्हे प्रकट हुआ देखते हैं उन योगेश्वर भगवान को मैं नमस्कार करता हूँ ॥२७॥

नमो नमस्तुभ्यमसह्यवेगशक्तित्रयायाखिलधीगुणाय ।
प्रपन्नपालाय दुरन्तशक्तयेकदिन्द्रियाणामनवाप्यवर्त्मने ॥२८॥

जिनकी त्रिगुणात्मक (सत्त्व-रज-तमरूप ) शक्तियों का रागरूप वेग असह्य है, जो सम्पूर्ण इन्द्रियों के विषयरूप में प्रतीत हो रहे हैं, अर्थात जिनकी इन्द्रियाँ विषयों के भोग में ही रची पची रहती हैं-ऐसे लोगों को जिस प्रभु का मार्ग भी मिलना असंभव है, उन शरणागतरक्षक एवं अपारशक्तिशाली आपको बार बार नमस्कार है ॥२८॥

नायं वेद स्वमात्मानं यच्छ्क्त्याहंधिया हतम ।
तं दुरत्ययमाहात्म्यं भगवन्तमितोsस्म्यहम ॥२९॥

जिनकी अविद्या नामक शक्ति के कार्यरूप अहंकार से ढंके हुए अपने स्वरूप को यह जीव जान नही पाता, उन अपार महिमा वाले भगवान की मैं शरण मे आया हूँ ॥२९॥

श्री शुकदेव उवाच –

श्री शुकदेवजी ने कहा –

एवं गजेन्द्रमुपवर्णितनिर्विशेषं ब्रह्मादयो विविधलिंगभिदाभिमानाः ।
नैते यदोपससृपुर्निखिलात्मकत्वाततत्राखिलामर्मयो हरिराविरासीत ॥३०॥

इस प्रकार से भगवान के भेदरहित निराकार स्वरूप का वर्णन करने वाले उस गजराज के समीप ब्रह्मा आदि कोई भी देवता नही आये, क्योंकि वे भिन्न भिन्न प्रकार के विशिष्ट विग्रहों को ही अपना स्वरूप मानते हैं, तब सक्षात श्री हरि- जो सबके आत्मा होने के कारण सर्वदेवस्वरूप हैं-वहाँ प्रकट हो गये ॥३०॥

तं तद्वदार्त्तमुपलभ्य जगन्निवासः स्तोत्रं निशम्य दिविजैः सह संस्तुवद्भि : ।
छन्दोमयेन गरुडेन समुह्यमान श्चक्रायुधोsभ्यगमदाशु यतो गजेन्द्रः ॥३१॥

उपर्युक्त गजराज को उस प्रकार दुःखी देख कर तथा उसके द्वारा पढी हुई सुंदर स्तुति को सुन कर सुदर्शनचक्रधारी जगदाधार भगवान इच्छानुरूप वेग वाले गरुड जी की पीठ पर सवार होकर स्तवन करते हुए देवताओं के साथ तत्काल उस स्थान पर पहुँच गये जहाँ वह हाथी था ।

सोsन्तस्सरस्युरुबलेन गृहीत आर्त्तो दृष्ट्वा गरुत्मति हरि ख उपात्तचक्रम ।

उत्क्षिप्य साम्बुजकरं गिरमाह कृच्छा न्नारायण्खिलगुरो भगवान नम्स्ते ॥३२॥

सरोवर के भीतर महाबली ग्राह के द्वारा पकडे जाकर दुःखी हुए उस हाथी ने आकाश में गरुड की पीठ पर सवार चक्र उठाये हुए भगवान श्री हरि को देखकर अपनी सूँड को -जिसमें उसने (पूजा के लिये) कमल का एक फूल ले रक्खा था-ऊपर उठाया और बडी ही कठिनाई से “सर्वपूज्य भगवान नारायण आपको प्रणाम है” यह वाक्य कहा ॥३२॥

तं वीक्ष्य पीडितमजः सहसावतीर्य सग्राहमाशु सरसः कृपयोज्जहार ।
ग्राहाद विपाटितमुखादरिणा गजेन्द्रं सम्पश्यतां हरिरमूमुचदुस्त्रियाणाम ॥३३॥

उसे पीडित देख कर अजन्मा श्री हरि एकाएक गरुड को छोडकर नीचे झील पर उतर आये । वे दया से प्रेरित हो ग्राहसहित उस गजराज को तत्काल झील से बाहर निकाल लाये और देवताओं के देखते देखते चक्र से मुँह चीर कर उसके चंगुल से हाथी को उबार लिया ॥३३॥




28 अगस्त 2025

श्री विघ्नराज गणपति का हवन

 



गणपति विसर्जन से पहले सबकी इच्छा होती है कि गणपति हवन हो जाता तो अच्छा होता |

यदि किसी कारणवश आप किसी साधक /पंडित से हवन ना करवा सकें तो आपके लिए एक सरल हवन विधान प्रस्तुत है जो आप आसानी से स्वयम कर सकते हैं ।

किसी कुंड या बर्तन मे आप लकड़ी डालकर आग जला लें । बर्तन या कुंड को ईंट या रेत के ऊपर रखें 

ऊं अग्नये नमः ।
7 बार इस मन्त्र का जाप करें तथा आग जला लें ।

ऊं परम तत्वाय नारायणाय गुरुभ्यो नमः ।
21 बार इस मन्त्र का जाप करें ।

अग्नि जल जाए तब घी/ दशांग (हवन सामग्री ) से आहुति डालें |

ऊं अग्नये स्वाहा ......
7 आहुति अग्नि मे डालें

ऊं गं स्वाहा .....
1 आहुति अग्नि मे डालें

ऊं भैरवाय स्वाहा .....
11 आहुति अग्नि मे डालें

ऊं परम तत्वाय नारायणाय गुरुभ्यो नमः स्वाहा .....
21 आहुति अग्नि मे डालें

ॐ प्रचंड चंडिकायै स्वाहा –
9 बार अपने मस्तक को स्पर्श करते हुए आहुति डालें ।

अब अपनी मनोकामना भगवान् गणपति के समक्ष निवेदन मन में या बोलकर करें

ऊं गं गणपतये स्वाहा .....
108 बार ह्रदय को स्पर्श करते हुए आहुति डालें

अन्त में कहें कि गणपति भगवान की कृपा मुझे प्राप्त हो....

दोनों कान पकड़कर सभी गलतियों के लिये क्षमा मांगे.....

तीन बार पानी छिडककर शांति शांति शांति ऊं कहें.....

संभव हो तो किसी गरीब बच्चे को भोजन/मिठाई/दान अवश्य दें

26 अगस्त 2025

लक्ष्मी प्राप्ति हेतु गणपति साधना

लक्ष्मी प्राप्ति हेतु गणपति साधना

 

गजाननं भूतगणादि सेवितं कपीत्थ जम्बू फल चारू भक्षितम ।

उमासुतम शोक विनाशकारणम नमामि विघ्नेश्वर पाद पंकजम ।


गज के समान मुख वाले, भूतादि गण जिनकी सेवा करते हैं ऐसे विविध भोज्य पदार्थों के प्रेमी तथा बाधओं को दूर करने वाले देवी जगदम्बा के प्रियपुत्र भगवान गणेश के चरण कमलों को मैं सादर प्रणाम करता हूं ।


कलियुग में फलदायक साधनाओं के विषय में कहा गया है कि:-

 

‘कलौ चण्डी विनायकौ’

 

अर्थात कलियुग में चण्डी तथा गणपति साधनायें ज्यादा फलप्रद होंगी। 

गणपति साधना को प्रारंभिक तथा अत्यंत लाभप्रद साधनाओं में गिना जाता है। योगिक विचार में मूलाधार चक्र को कुण्डली का प्रारंभ माना जाता है तथा गणपति उसके स्वामी माने जाते हैं। साथ ही शिव शक्ति के पुत्र होने के कारण दोनों की संयुक्त कृपा प्रदान करते हैं।

 

भगवती लक्ष्मी को चंचला कहा गया है । चंचला अर्थात जो एक स्थान पर ज्यादा देर तक न रह सकती हो । केवल लक्ष्मी का पूजन तथा साधना यद्यपि फलदायक होती है मगर अल्पकालिक होती है । लक्ष्मी के साथ गणपति का पूजन लक्ष्मी को स्थायित्व प्रदान करता है।

 

आगे की पंक्तियों में भगवान गणपति का एक स्तोत्र प्रस्तुत है। इस स्तोत्र का नित्य पाठ करना लाभप्रद होता है। यद्यपि यह कहना उचित नही होगा कि इस स्तोत्र के पाठ से आप धनवान बन जायेंगें, परंतु धनागमन के नए मार्गों के संबंध में नए विचार उपाय आदि आपके मस्तिष्क में उत्पन्न होंगें, जिनका सही प्रयोग कर आप धन प्राप्ति कर सकेंगें।

 

गणपति स्तोत्र

 

ऊं नमो विघ्नराजाय सर्वसौख्य प्रदायिने ।

दुष्टारिष्ट विनाशाय पराय परात्मने ।

लम्बोदरं महावीर्यं नागयज्ञोपशोभितं ।

अर्धचंद्रधरं देवं विघ्न व्यूह विनाशनम ।

ॐ हृॉं हृीं ह्रूँ हृैं हृौं हृः हेरम्बाय नमः ।

सर्व सिद्धिप्रदो सि त्वं सिद्धिबुद्धिप्रदो भवतः ।

चिंतितार्थ प्रदस्त्वं हि सततं मोदकप्रियः ।

सिंदूरारूण वस्त्रेश्च पूजितो वरदायकः ।


फलश्रुति:-

इदं गणपति स्तोत्रं यः पठेद भक्तिमान नरः ।

तस्य देहं च गेहं च लक्ष्मीर्न मुश्चति ।

 

इस स्तोत्र का 108 पाठ करें। इससे पहले भगवान गणपति के सामने अपनी इच्ठा या मनोकामना रखें तथा इसका पाठ प्रारंभ करें । भगवान गणपति की कृपा से आपको अपनी इच्ठा की पूर्ति में अवश्य सहायता मिलेगी।

 


लघु गणेश पूजन

 लघु गणेश पूजन



यह एक छोटा गणेश भगवान का पूजन है जिसे आप लगभग 10 मिनट मे सम्पन्न कर सकते हैं 

पहले गुरु स्मरण ,गणेश भैरव महालक्ष्मी स्मरण करे ..
ॐ गुं गुरुभ्यो नमः
ॐ श्री गणेशाय नमः

ॐ भ्रम भैरवाय  नमः 
ॐ श्री महालक्ष्म्यै नमः

अब आप 4 बार आचमन करे दाए हाथ में पानी लेकर पिए
गं आत्मतत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा
गं विद्यातत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा
गं शिव तत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा
गं सर्व तत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा

अब आप घंटा नाद करे और उसे पुष्प अक्षत अर्पण करे
घंटा देवताभ्यो नमः

अब आप जिस आसन पर बैठे है उस पर पुष्प अक्षत अर्पण करे
आसन देवताभ्यो नमः

अब आप दीपपूजन करे उन्हें प्रणाम करे और पुष्प अक्षत अर्पण करे
दीप देवताभ्यो नमः

अब आप कलश का पूजन करे ..उसमेगंध ,अक्षत ,पुष्प ,तुलसी,इत्र ,कपूर डाले ..उसे तिलक करे .
कलश देवताभ्यो नमः

अब आप अपने आप को तिलक करे

फिर संक्षिप्त गुरु पुजन करे
ॐ गुं गुरुभ्यो नम: ।
ॐ परम गुरुभ्यो नम: ।
ॐ पारमेष्ठी गुरुभ्यो नम: ।

उसके बाद गणपति का ध्यान करे
वक्रतुण्ड महाकाय सूर्य कोटि समप्रभ
निर्विघ्नं कुरु में देव सर्व कार्येशु सर्वदा

उनका आह्वान करें अर्थात बुलाएं 
श्री महागणपति आवाहयामि
मम पूजन स्थाने रिद्धि सिद्धि सहित शुभ लाभ सहित स्थापयामि नमः

उनका स्वागत करें , फूल आदि चढ़ाएं 
त्वां चरणे गन्धाक्षत पुष्पं समर्पयामि ।


पंचोपचार पूजन करें

ॐ गं " लं" पृथ्वी तत्वात्मकं गंधं समर्पयामि । 
कुमकुम,चन्दन अष्टगंध चढ़ाएँ ।

ॐ गं " हं" आकाश तत्वात्मकं पुष्पम समर्पयामि । 
फूल चढ़ाएँ ।

ॐ गं " यं " वायु तत्वात्मकं धूपं समर्पयामि । 
धूप या अगरबत्ती दिखाएँ ।

ॐ गं " रं" अग्नी तत्वात्मकं दीपं समर्पयामि । 
दीपक दिखाएँ ।

ॐ गं " वं " जल तत्वात्मकं नैवेद्यं समर्पयामि । 
प्रसाद चढ़ाएँ ।


अब गणेशजी को अर्घ्य प्रदान करे, एक चम्मच जल चढ़ाएं 
एकदंताय विद्महे वक्रतुंडाय धीमहि तन्नो दन्ती प्रचोदयात

 भगवान गणेश जी के 16 नाम से दूर्वा या पुष्प अक्षत या जल अर्पण करे

1. ॐ गं सुमुखाय नम: । 
2. ॐ गं एकदंताय नमः।
3. ॐ गं कपिलाय नमः।
4. ॐ गं गजकर्णकाय नमः।
5. ॐ गं लंबोदराय नमः।
6. ॐ गं विकटाय नम: । 
7. ॐ गं विघ्नराजाय नमः।
8. ॐ गं गणाधिपाय नम: । 
9. ॐ गं धूम्रकेतवे नम : । 
10 . ॐ गं गणाध्यक्षाय नमः।
11. ॐ गं भालचंद्राय नमः।
12. ॐ गं गजाननाय नम: । 
13. ॐ गं वक्रतुंडाय नमः।
14. ॐ गं शूर्पकर्णाय नमः।
15. ॐ गं हेरंबाय नमः।
16. ॐ गं स्कंदपूर्वजाय नमः।

अब एक आचमनी जल लेकर पूजा स्थान पर छोड़े
अनेन महागणपति षोडश नाम पूजनेन श्री भगवान महागणपति प्रीयन्तां न मम .

हाथ जोड़ कर भगवान गणेश जी से प्रार्थना करे

श्री गणेश अष्टोत्तर शत नाम

 श्री गणेश अष्टोत्तर शत नाम




‘कलौ चण्डी-विनायकौ’-कलियुग में ‘चण्डी’ और ‘गणेश’ की साधना ही श्रेयस्कर है।

मेरे गुरुदेव ने बताया था कि कलयुग में चंडी अर्थात भगवती जगदंबा की साधना और विनायक अर्थात गणेश भगवान की साधना या पूजा करने से ज्यादा लाभप्रद होता है ।

गणेश भगवान की साधना सरल है और उसमें बहुत ज्यादा विधि-विधान और जटिलता की आवश्यकता नहीं है इसीलिए सर्वसामान्य में गणेश भगवान की पूजन का बहुत ज्यादा प्रचलन है जो हम गणेशोत्सव के रूप में प्रतिवर्ष देखते हैं ।
गणेश भगवान के पूजन के लिए आप पंचोपचार व षोडशोपचार जैसे पूजन विधान का प्रयोग कर सकते हैं लेकिन उसमें संस्कृत श्लोकों का ज्यादा प्रयोग होता है जो पढ़ने में सामान्य जन को थोड़ी दिक्कत होती है । लेकिन करते करते उच्चारण स्पष्ट हो जाता है । 
पूजन की एक अन्य विधि है अष्टोत्तर शतनाम !

अष्टोत्तर शतनाम का मतलब होता है, गणेश भगवान के 108 नाम के साथ उनका प्रणाम करते हुए पूजन करना जो कि सरल है और हर कोई कर सकता है ।

आप इन नाम का उच्चारण करने के बाद हर बार नम: बोलते समय अपनी श्रद्धा अनुसार
फूल,
चावल के दाने,
अष्टगंध,
दूर्वा ,
चंदन या जो आपकी श्रद्धा हो वह चढ़ा सकते हैं ।
इस प्रकार से बेहद सरलता से आप गणेश भगवान का पूजन संपन्न कर पाएंगे ।


1 गं विनायकाय नम: ॥
2 गं द्विजप्रियाय नम: ॥
3 गं शैलेंद्र तनुजोत्संग खेलनोत्सुक मानसाय नम: ॥
4 गं स्वलावण्य सुधा सार जित मन्मथ विग्रहाय नम: ॥
5 गं समस्तजगदाधाराय नम: ॥
6 गं मायिने नम: ॥
7 गं मूषकवाहनाय नम: ॥
8 गं हृष्टाय नम: ॥
9 गं तुष्टाय नम: ॥
10 गं प्रसन्नात्मने नम: ॥
11 गं सर्व सिद्धि प्रदायकाय नम: ॥
12 गं अग्निगर्भच्छिदे नम: ॥
13 गं इंद्रश्रीप्रदाय नम: ॥
14 गं वाणीप्रदाय नम: ॥
15 गं अव्ययाय नम: ॥
16 गं सिद्धिरूपाय नम: ॥
17 गं शर्वतनयाय नम: ॥
18 गं शर्वरीप्रियाय नम: ॥
19 गं सर्वात्मकाय नम: ॥
20 गं सृष्टिकत्रै नम: ॥
21 गं विघ्नराजाय नम: ॥
22 गं देवाय नम: ॥
23 गं अनेकार्चिताय नम: ॥
24 गं शिवाय नम: ॥
25 गं शुद्धाय नम: ॥
26 गं बुद्धिप्रियाय नम: ॥
27 गं शांताय नम: ॥
28 गं ब्रह्मचारिणे नम: ॥
29 गं गजाननाय नम: ॥
30 गं द्वैमातुराय नम: ॥
31 गं मुनिस्तुत्याय नम: ॥
32 गं गौरीपुत्राय नम: ॥
33 गं भक्त विघ्न विनाशनाय नम: ॥
34 गं एकदंताय नम: ॥
35 गं चतुर्बाहवे नम: ॥
36 गं चतुराय नम: ॥
37 गं शक्ति संयुक्ताय नम: ॥
38 गं लंबोदराय नम: ॥
39 गं शूर्पकर्णाय नम: ॥
40 गं हस्त्ये नम: ॥
41 गं ब्रह्मविदुत्तमाय नम: ॥
42 गं कालाय नम: ॥
43 गं गणेश्वराय नम: ॥
44 गं ग्रहपतये नम: ॥
45 गं कामिने नम: ॥
46 गं सोम सूर्याग्नि लोचनाय नम: ॥
47 गं पाशांकुश धराय नम: ॥
48 गं चण्डाय नम: ॥
49 गं गुणातीताय नम: ॥
50 गं निरंजनाय नम: ॥
51 गं अकल्मषाय नम: ॥
52 गं स्वयं सिद्धाय नम: ॥
53 गं सिद्धार्चित पदांबुजाय नम: ॥
54 गं स्कंदाग्रजाय नम: ॥
55 गं बीजापूर फलासक्ताय नम: ॥
56 गं वरदाय नम: ॥
57 गं शाश्वताय नम: ॥
58 गं कृतिने नम: ॥
59 गं सर्व प्रियाय नम: ॥
60 गं वीतभयाय नम: ॥
61 गं गतिने नम: ॥
62 गं चक्रिणे नम: ॥
63 गं इक्षु चाप धृते नम: ॥
64 गं श्री प्रदाय नम: ॥
65 गं अव्यक्ताय नम: ॥
66 गं अजाय नम: ॥
67 गं उत्पल कराय नम: ॥
68 गं श्री पतये नम: ॥
69 गं स्तुति हर्षिताय नम: ॥
70 गं कुलाद्रिभेत्रे नम: ॥
71 गं जटिलाय नम: ॥
72 गं कलि कल्मष नाशनाय नम: ॥
73 गं चंद्रचूडामणये नम: ॥
74 गं कांताय नम: ॥
75 गं पापहारिणे नम: ॥
76 गं भूताय नम: ॥
77 गं समाहिताय नम: ॥
78 गं आश्रिताय नम: ॥
79 गं श्रीकराय नम: ॥
80 गं सौम्याय नम: ॥
81 गं भक्त वांछित दायकाय नम: ॥
82 गं शांतमानसाय नम: ॥
83 गं कैवल्य सुखदाय नम: ॥
84 गं सच्चिदानंद विग्रहाय नम: ॥
85 गं ज्ञानिने नम: ॥
86 गं दयायुताय नम: ॥
87 गं दक्षाय नम: ॥
88 गं दांताय नम: ॥
89 गं ब्रह्मद्वेष विवर्जिताय नम: ॥
90 गं प्रमत्त दैत्य भयदाय नम: ॥
91 गं श्रीकण्ठाय नम: ॥
92 गं विबुधेश्वराय नम: ॥
93 गं रामार्चिताय नम: ॥
94 गं विधये नम: ॥
95 गं नागराज यज्ञोपवितवते नम: ॥
96 गं स्थूलकण्ठाय नम: ॥
97 गं स्वयंकर्त्रे नम: ॥
98 गं अध्यक्षाय नम: ॥
99 गं साम घोष प्रियाय नम: ॥
100 गं परस्मै नम: ॥
101 गं स्थूल तुंडाय नम: ॥
102 गं अग्रण्यै नम: ॥
103 गं धीराय नम: ॥
104 गं वागीशाय नम: ॥
105 गं सिद्धि दायकाय नम: ॥
106 गं दूर्वा बिल्व प्रियाय नम: ॥
107 गं अव्यक्त मूर्तये नम: ॥
108 गं अद्भुत मूर्ति मते नम: ॥


अंत में हाथ जोड़कर प्रणाम करें और दोनों कान पकड़कर किसी भी प्रकार की त्रुटि के लिए क्षमा प्रार्थना करते हुए भगवान गणेश से अपने इच्छित मनोकामना को पूर्ण करने की याचिका करें ।