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24 जुलाई 2010

निखिल पंचकम

आदोवदानं परमं सदेहं, प्राण प्रमेयं पर संप्रभूतम ।
पुरुषोत्तमां पूर्णमदैव रुपं, निखिलेश्वरोयं प्रणम्यं नमामि ॥ १॥
अहिर्गोत रूपं सिद्धाश्रमोयं, पूर्णस्वरूपं चैतन्य रूपं ।
दीर्घोवतां पूर्ण मदैव नित्यं, निखिलेश्वरोयं प्रणम्यं नमामि ॥ २॥
ब्रह्माण्ड्मेवं ज्ञानोर्णवापं,सिद्धाश्रमोयं सवितं सदेयं ।
अजन्मं प्रवां पूर्ण मदैव चित्यं, निखिलेश्वरोयं प्रणम्यं नमामि ॥ ३॥
गुरुर्वै त्वमेवं प्राण त्वमेवं, आत्म त्वमेवं श्रेष्ठ त्वमेवं ।
आविर्भ्य पूर्ण मदैव रूपं, निखिलेश्वरोयं प्रणम्यं नमामि ॥ ४॥
प्रणम्यं प्रणम्यं प्रणम्यं परेशां,प्रणम्यं प्रणम्यं प्रणम्यं विवेशां ।
प्रणम्यं प्रणम्यं प्रणम्यं सुरेशां, निखिलेश्वरोयं प्रणम्यं नमामि ॥ ५॥

23 जुलाई 2010

गुरुर्वै शरण्यं

गुरुर्वै शरण्यं गुरुर्वै शरण्यं...........

एक पत्थर की भी तकदीर बदल सकती है,
शर्त ये है कि सलीके से तराशा जाए....
रास्ते में पडालोगों के पांवों की ठोकरें खाने वाला पत्थरजब योग्य मूर्तिकार के हाथ लग जाता है तो वह उसे तराशकर अपनी सर्जनात्मक क्षमता का उपयोग करते हुयेइस योग्य बना देता हैकि वह मंदिर में प्रतिष्ठित होकर करोडों की श्रद्धा का केद्र बन जाता है। करोडों सिर उसके सामने झुकते हैं। रास्ते के पत्थर को इतना उच्च स्वरुप प्रदान करने वाले मूर्तिकार के समान हीएक गुरु अपने शिष्य को सामान्य मानव से उठाकर महामानव के पद पर बिठा देता है। चाणक्य ने अपने शिष्य चंद्रगुप्त को सडक से उठाकर संपूर्ण भारतवर्ष का चक्रवर्ती सम्राट बना दिया। विश्व मुक्केबाजी का महानतम हैवीवेट चैंपियन माइक टायसन सुधार गृह से निकलकर अपराधी बन जाता अगर उसकी प्रतिभा को उसके गुरू ने ना पहचाना होता। यह एक अकाट्य सत्य है कि चाहे वह कल का विश्वविजेता सिकंदर हो या आज का हमारा महानतम बल्लेबाज सचिन तेंदुलकरवे अपनी क्षमताओं को पूर्णता प्रदान करने में अपने गुरु के मार्गदर्शन व योगदान के अभाव में सफल नही हो सकते थे।  
हमने प्राचीन काल से ही गुरु को सबसे ज्यादा सम्माननीय तथा आवश्यक माना। भारत की गुरुकुल परंपरा में बालकों को योग्य बनने के लिये आश्रम में रहकर विद्याद्ययन करना पडता थाजहां गुरु उनको सभी आवश्यक ग्रंथो का ज्ञान प्रदान करते हुए उन्हे समाज के योग्य बनाते थे। विश्व के प्राचीनतम विश्वविद्यालयों नालंदा तथा तक्षशिला में भी उसी ज्ञानगंगा का प्रवाह हम देखते हैं। संपूर्ण विश्व में शायद ही किसी अन्य देश में गुरु को उतना सम्मान प्राप्त हो जितना हमारे देश में दिया जाता रहा है। यहां तक कहा गया किः-
गुरु गोविंद दोऊ खडे काके लागूं पांय ।
बलिहारी गुरु आपकी गोविंद दियो बताय ॥
अर्थातयदि गुरु के साथ स्वयं गोविंद अर्थात साक्षात भगवान भी सामने खडे होंतो भी गुरु ही प्रथम सम्मान का अधिकारी होता हैक्योंकि उसीने तो यह क्षमता प्रदान की है कि मैं गोविंद को पहचानने के काबिल हो सका। आध्यात्मिक जगत की ओर जाने के इच्छुक प्रत्येक व्यक्ति का मार्ग गुरु और केवल गुरु से ही प्रारंभ होता है। कुछ को गुरु आसानी से मिल जाते हैंकुछ को काफी प्रयास के बाद मिलते हैं,और कुछ को नहीं मिलते हैं।साधनात्मक जगतजिसमें योगतंत्रमंत्र जैसी विद्याओं को रखा जाता हैमें गुरु को अत्यंत ही अनिवार्य माना जाता है।वे लोग जो इन क्षेत्रों में विशेषज्ञता प्राप्त करना चाहते हैंउनको अनिवार्य रुप से योग्य गुरु के सानिध्य के लिये प्रयास करना ही चाहिये। ये क्षेत्र उचित मार्गदर्शन की अपेक्षा रखते हैं।
गुरु का तात्पर्य किसी व्यक्ति के देह या देहगत न्यूनताओं से नही बल्कि उसके अंतर्निहित ज्ञान से होता हैवह ज्ञान जो आपके लिये उपयुक्त हो,लाभप्रद हो। गुरु गीता में कुछ श्लोकों में इसका विवेचन मिलता हैः-
अज्ञान तिमिरांधस्य ज्ञानांजन शलाकया ।
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरुवे नमः ॥
अज्ञान के अंधकार में डूबे हुये व्यक्ति को ज्ञान का प्रकाश देकर उसके नेत्रों को प्रकाश का अनुभव कराने वाले गुरु को नमन। गुरु शब्द के अर्थ को बताया गया है कि :-
गुकारस्त्वंधकारश्च रुकारस्तेज उच्यते।
अज्ञान तारकं ब्रह्‌म गुरुरेव न संशयः॥
गुरु शब्द के पहले अक्षर ÷गुका अर्थ हैअंधकार जिसमें शिष्य डूबा हुआ हैऔर ÷रुका अर्थ हैतेज या प्रकाश जिसे गुरु शिष्य के हृदय में उत्पन्न कर इस अंधकार को हटाने में सहायक होता हैऔर ऐसे ज्ञान को प्रदान करने वाला गुरु साक्षात ब्रह्‌म के तुल्य होता है।
ज्ञान का दान ही गुरु की महत्ता है। ऐसे ही ज्ञान की पूर्णता का प्रतीक हैं भगवान शिव। भगवान शिव को सभी विद्याओं का जनक माना जाता है। वे तंत्र से लेकर मंत्र तक और योग से लेकर समाधि तक प्रत्येक क्षेत्र के आदि हैं और अंत भी। वे संगीत के आदिसृजनकर्ता भी हैंऔर नटराज के रुप में कलाकारों के आराध्य भी हैं। वे प्रत्येक विद्या के ज्ञाता होने के कारण जगद्गुरु भी हैं। गुरु और शिव को आध्यात्मिक जगत में समान माना गया है। कहा गया है कि :-
यः शिवः सः गुरु प्रोक्तः। यः गुरु सः शिव स्मृतः॥
अर्थात गुरु और शिव दोनों ही अभेद हैंऔर एक दूसरे के पर्याय हैं।जब गुरु ज्ञान की पूर्णता को प्राप्त कर लेता है तो वह स्वयं ही शिव तुल्य हो जाता हैतब वह भगवान आदि शंकराचार्य के समान उद्घोष करता है कि ÷शिवोहंशंकरोहं'।ऐसे ही ज्ञान के भंडार माने जाने वाले गुरुओं के प्रति अपना सम्मान व्यक्त करने का पर्व हैगुरु पूर्णिमा या व्यास पूर्णिमा।यह वो बिंदु हैजिसके वाद से सावन का महीना जो कि शिव का मास माना जाता हैप्रारंभ हो जाता है। इसका प्रतीक रुप में अर्थ लें तोजब गुरु अपने शिष्य को पूर्णता प्रदान कर देता हैतो वह आगे शिवत्व की प्राप्ति की दिशा में अग्रसर होने लगता है,और यह भाव उसमें जाग जाना ही मोक्ष या ब्रह्‌मत्व की स्थिति कही गयी है।
गुरु पूर्णिमा के अवसर पर हर शिष्य की इच्छा होती है कि वह गुरु के सानिध्य में पहुँच सके ताकि वे उसे शिवत्व का मार्ग बता सकें।यदि किसी कारणवश आप गुरु को प्राप्त न कर पाये हों तो आप दो तरीकों से साधना पथ पर आगे की ओर गतिमान हो सकते हैं। पहला यह कि आप अपने आराध्य या इष्टदेवता या देवी को गुरु मानकर आगे बढें और दूसरा आप भगवान शिव को ही गुरु मानते हुये निम्नलिखित मंत्र का अनुष्ठान करें:-
॥ ऊं गुं गुरुभ्यो नमः ॥




  1. इस मंत्र का सवा लाख जाप करें।साधनाकाल में सफेद रंग के वस्त्रों को धारण करें।





  2. अपने सामने अपने गुरु के लिये भी सफेद रंग का एक आसन बिछाकर रखें।





  3. यदि हो सके तो इस मंत्र का जाप प्रातः चार से छह बजे के बीच में करना चाहिये।साधना पूर्ण होने तक आपके भाग्यानुकूल श्रेष्ठ गुरु हैं तो साधनात्मक रुप से आपको संकेत मिल जायेंगे।

गुरु पूर्णिमा के अवसर पर प्रत्येक गृहस्थ को उपरोक्त मंत्र का कुछ समय तक जाप करना ही चाहियेहमारे पूर्वज ऋषियों तथा गुरुओं के प्रति सम्मान प्रकट करने का यह एक श्रेष्ठ तरीका है।


गुरु के अभाव मे साधना कैसे करें

कई बार ऐसा होता है कि हम किसी कारण वश गुरु बना नही पाते या गुरु प्राप्त नही हो पाते । कई बार हम गुरुघंटालों से भरे इस युग मे वास्तविक गुरु को पहचानने मे असमर्थ हो जाते हैं ।
ऐसे मे हमें क्या करना चाहिये ? बिना गुरु के तो साधनायें नही करनी चाहिये ? ऐसे हज़ारों प्रश्न हमारे सामने नाचने लगते हैं........ इसके लिये एक सहज उपाय है कि आप अपने जिस देवि या देवता को इष्ट मानते हैं उसे ही गुरु मानकर उसका मन्त्र जाप प्रारंभ कर दें । उदाहरण के लिये यदि गणपति आपके ईष्ट हैं तो आप उन्हे गुरु मानकर " ऊं गं गणपतये नमः " मन्त्र का जाप करना प्रारम्भ कर लें ।
लेकिन निम्नलिखित साधनायें अपवाद हैं जिनको साक्षात गुरु की अनुमति तथा निर्देशानुसार ही करना चाहिये:-
  1. छिन्नमस्ता साधना ।
  2. शरभेश्वर साधना ।
  3. अघोर साधनाएं ।
  4. श्मशान साधना ।
  ये साधनायें उग्र होती हैं और साधक को कई बार परेशानियों का सामना करना पड्ता है ।

22 जुलाई 2010

गुरु पंचकम

शक्ति स्वरूपं भवदेव रूपं, चिन्त्यम विचिन्त्यम शम्भु स्वरूपम ।

विष्णोर्थवां ब्रह्म तथैव रुपं, गुरुत्वं शरण्यं , गुरुत्वं शरण्यं॥

नारायणोत्वम निखिलेश्वरो त्वम, पूर्णेश्वरो त्वम ज्ञानेश्वरो त्वम ।

ब्रह्मान्ड रूपं मपरं त्वमेवं, गुरुत्वं शरण्यं गुरुत्वं शरण्यं।

मातृ स्वरूपं ,पितृ स्वरूपं, ज्ञान स्वरुपं, चैतन्य रुपं ॥ 

भवतां भवेवं अमृतो sपतुल्यं, गुरुत्वं शरण्यं , गुरुत्वं शरण्यं॥  

देवाधिदेवं भवतां  श्रियन्तुं ,शिष्यत्व रक्षा परिपूर्ण देयं । 

अमृतं भवां पूर्ण मदैव कुम्भं, गुरुत्वं शरण्यं , गुरुत्वं शरण्यं॥ 

कम्पय स्वरूपं गदगद गदेवं, भवतां वदेवं सवितां च सुर्यं । 

सर्वोपमां पूर्ण पूर्णत्व रुपं, गुरुत्वं शरण्यं , गुरुत्वं शरण्यं॥

21 जुलाई 2010

गुरु गायत्री मन्त्र

गुरुवार से प्रारम्भ करें ।

प्रातःकाल [हो सके तो ब्रह्म मुहुर्त ४.०० -६.००] जाप करें । 

लाभ - गुरुकृपा ।

॥ ऊं गुरुदेवाय विद्महे परब्रह्माय धीमहि तन्नो गुरु प्रचोदयात ॥

20 जुलाई 2010

गणपति


गणपति स्तोत्र

विघ्नेश्वराय वरदाय सुरप्रियायलम्बोदराय सकलाय जगद्विताय ।
नागाननाय श्रुति यज्ञ विभूषितायगौरीसुताय गणनाथ नमोस्तुते ॥

भक्तार्तिनाशनपराय गणेश्वरायसर्वेश्वराय शुभदाय सुरेश्वराय ।
विद्याधराय विकटाय च वामनायभक्तप्रसन्न वरदाय नमोनमस्ते ॥

नमस्ते ब्रह्‌मरूपाय विष्णुरूपायते नमःनमस्ते रूद्ररूपाय करि रूपायते नमः ।
विश्वरूपस्य रूपाय नमस्ते ब्रह्‌मचारिणेभक्तप्रियाय देवाय नमस्तुभ्यं विनायकः ॥

लम्बोदर नमस्तुभ्यं सततं मोदकप्रियनिर्विघ्नं कुरू मे देव सर्व कार्येषु सर्वदा ।
त्वां विघ्न शत्रु दलनेति च सुंदरेति भक्तप्रियेति शुभदेति फलप्रदेति ॥

विद्याप्रदेत्यघहरेति च ये स्तुवंति तेभ्यो गणेश वरदो भव नित्यमेवि ।
अनया पूजया सांगाय सपरिवाराय श्री गणपतिम समर्पयामि नमः ॥

19 जुलाई 2010

हनुमान मन्त्र-५

दिशा - दक्षिण । वस्त्र - लाल । जप संख्या - १२५०००

॥  ऊं पवन नंदनाय स्वाहा ॥